शुक्रवार, 27 जून 2014

आग जलती रहे

दुष्यंत कुमार की प्रसिद्ध कविता 'आग जलती रहे' ; जिंदगी में कितने ही संघर्ष भरे दिन आते हैं , कितने ही अग्नि परीक्षाओं में हमें सफल होना पड़ता है , परन्तु सफलता हमारे कदमों में तभी शरण लेती है जब तक सही वक़्त नहीं आता , इंसान की सोई हुई चेतना नहीं जागती !

एक तीखी आँच ने
इस जन्म का हर पल छुआ,
आता हुआ दिन छुआ
हाथों से गुजरता कल छुआ
हर बीज, अँकुआ, पेड़-पौधा,
फूल-पत्ती, फल छुआ
जो मुझे छुने चली
हर उस हवा का आँचल छुआ
प्रहर कोई भी नहीं बीता अछुता...
आग के संपर्क से
दिवस, मासों और वर्षों के कड़ाहों में
मैं उबलता रहा पानी-सा
परे हर तर्क से
एक चौथाई उमर
यों खौलते बीती बिना अवकाश
सुख कहाँ
यों भाप बन-बन कर चुका,
रीता, भटकता
छानता आकाश
आह! कैसा कठिन
कैसा पोच मेरा भाग!
आग चारों और मेरे
आग केवल भाग!
सुख नहीं यों खौलने में सुख नहीं कोई,
पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोई,
वह, समय की प्रतीक्षा में है, जगेगी आप
ज्यों कि लहराती हुई ढकने उठाती भाप!
अभी तो यह आग जलती रहे, जलती रहे
जिंदगी यों ही कड़ाहों में उबलती रहे ।

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