गुरुवार, 14 नवंबर 2013

आईये ! और बचपनों को सुनहरा बनाएं ! :)

पता है 'चिल्ड्रन्स डे ' है तो सब हमेशा की तरह फिर से नोस्टैल्जिक हो जायेंगे .क्या करें सबसे प्यारा बचपन ही तो होता है .न कोई टेंशन .न कोई प्रेशर .पर कुछ लोगों के लिए यही बचपन बेहद खौफनाक होता है .बेहद बुरी ,कडवी यादों से जुड़ा होता है क्यूंकि यही वो अवस्था भी होती है जब हम मासूम ,कमज़ोर और दुनिया की रीत से हटके होते हैं ....और इसीलिए हमारे इसी भोलेपन का फायदा या तो समाज या परिस्थितियाँ उठा लेती हैं .पर अब आप समर्थ हैं .कम-से -कम अगर आपका बचपन परफेक्ट नही रह पाया तो आप ऐसे अनगिनत बच्चों का बचपन सँवारने में मदद तो कर सकते हैं न .

एक और बात जो वैसे तो व्यक्तिगत राय है पर शायद काफी सारे लोग मेरी इस बात से सहमत होंगे कि इस दुनिया में इतने सारे बच्चे 'बिन माँ -पापा ' के ज़िन्दगी गुजारते हैं .और हमारे यहाँ हम बस 'अपना खून अपना ही होता है ' का बड़ा ही बेसुरा राग अलापते रहते हैं .उनसे पूछिए जो अपनी संतान के सुख के लिए तड़पते रहते हैं ,उनके लिए ये बच्चे ही रौशनी लाते हैं . फिर क्यूँ खुद अपनी औलाद को जनम देना हमारे यहाँ अति आवश्यक समझा जाता है .शादी होने के बाद ही समाज का सारा दारोमदार अपने कन्धों पर ढोने वाली तथाकथित आंटियाँ कैसे जब देखो तब शुरू हो जाती हैं ....खुशखबरी कब सुना रही हो .गोया कि अब ज़िन्दगी में खुशखबरी के लिए और कोई वजह ही नही है!! और कैसे बच्चा गोद लेने पर समाज तो छोडिये परिवार भी नाक भौंह सिकोड़ता है .क्यूँ ? बच्चे का खून का रंग सफ़ेद तो न हो जाएगा और वैसे भी बच्चा आपकी परवरिश पर निर्भर करेगा .फिर क्यूँ हम ये खून का मोह पालते बैठते हैं .जानते हैं हम जबकि कि अपने खून पर तो बरसों से भरोसा पालते आये हैं पर वे ही खून के आंसू रुला देते हैं कई बार .तो एक बार प्यार और अपनेपन को तरसती इस नन्ही सी जान को अपने आँगन में पालकर तो देखिये .कैसे ज़िन्दगी भर आप के एक बूँद प्यार के बदले आप पर प्रेम और सम्मान की बरसात करेगा . 

और आप से इसलिए यह बात कर रही हूँ क्यूंकि आप से नही तो किससे!! आप नयी पीढ़ी के हैं .आप शुरुआत करेंगे तो आप को देखकर और लोग आगे आयेंगे और आप राज़ी होंगे तो आपके परिवार वालों को भी आप राज़ी कर ही लेंगे !! हाँ पर एक ज़िन्दगी रोशन करने का मतलब ये नही कि अब और किसी रोते और मायूस बच्चे के चेहरे पर खुशियाँ नही बिखेरने की कोशिश करेंगे .क्यूंकि एक को तो आपने कहीं न कहीं अपने लिए अपनाया (खुशियों का एक्सचेंज म्यूच्यूअल होता है भई !  ) पर यहाँ पर आपका इंसानी फ़र्ज़ ,एक समर्थ होने का फ़र्ज़ ख़तम नही हो जाता !!  

गुरुवार, 7 नवंबर 2013

'पतझड़ '

एक्ज़ाम हॉल में टाइम ख़तम होने के बाद भी अगर आप को बिठाकर रखा जाए तो आप बेशक बाहर निकलने के लिए अधीर होते होंगे ,सब होते हैं ,पर क्या करें अब रूल्स तो रूल्स हैं .

खैर इसी तरह कुछ मेरे साथ हुआ -दिमाग की झुंझलाहट को रोकने के लिए खिड़की के बाहर नज़र घुमाई तो फिर से भाव झरने लगे मस्तिष्क में .....दस मिनट में जैसा दिमाग और आँखों के बीच के तारतम्य से जुड़ता गया ,कुछ कविता जैसा बनता गया ....!!

'पतझड़ ' 

अपना हरापन खो चुके ये पत्ते ,
कुछ 'मन ' मसोसते से जान पड़ते हैं ;
झुर्रियों वाले ,भूरे ,सिकुड़े ,रौंदे ,कुचले ये पत्ते ;
कुछ हैं अभी प्रौढ़ता की ओर जा रहे ,
सो हैं थोड़े पीले से ;

जब ग़लती तले दब जाते हैं ये
हल्का सा शोर मचाते हैं ,
और जब ज्यादा दब जायें तो ;
कहते हैं हम -परे हटो इनसे क्यूंकि
बड़ी कर्कश सी ध्वनि है यह तो ,

दोस्तों ! कुछ सुना सुना सा नही लगता यह वाकया आपको ,
हमारे ,आपके घरों सा ही तो है .

इन दिनों 'उन्ही ' माँ-बाप की आवाज़ बड़ी चुभती है ,
उनकी कराह ,उनकी नाराजगी और गले की ख़राश भी दर्द देती है सर में ,
करती है चिढ़चिढ़ा ;
जनाब ! अब तो समझ ही गये होंगे आप कि वो 'मसोसते मन ' कौन हैं !

लब्बोलुआब है कि हर बसंत का एक पतझड़ आता है ;
काश यह समझते हम ;

नही तो दिन वो भी इक आएगा जब पाएंगे खुद को मसोसते हम 'मन' !!