सोमवार, 26 अगस्त 2013

मुंबई डायरीज़ –भाग एक


(मेरी  लिखी गयी कुल 4 -5  कविताओं में से ये ‘लोकल ‘ के लिए टिकट की कतार में लगे हुए बाहर ठीक कान्जुर स्टेशन से सटे रहवासों को देखकर ;दो तरह की जिंदगियों के विरोधाभास पर उमड़ते ख्यालों से प्रेरित होकर लिखी गयी है ....लोकल में अगर आपको बैठने को मिल जाए और हाथ में डायरी पैन हो ,लिखने की खुजली हो रही हो तो क्या ही बात ! खैर आगे के पन्ने भी मुंबई से जुड़ी यादों से भरे हैं   )

एक ऐसी भी ज़िन्दगी !
 
झरोखे से झाँकती ज़िन्दगी
ठीक रेल की पटरियों से सटी ;
सरपट भागती रेलें औ’
उससे भी तेज़ भागती यह ज़िन्दगी ,
कहीं तो आलीशान महलों से
सजा है जीवन
तो कहीं मजबूर है कोई
माचिस के डिब्बों से ‘घर’ के हिस्से में
ज़मीं भी ज़रा कुछ कम ही आती है
कुछ अटके हैं आसमां और ज़मी के बीच
तो कुछ रातें कटती हैं तारे गिनते
वहीँ पड़े हैं कुछ भीगे तौलिये
तो कबूतरों ने भी सोचा चलो !
चलो ...आज करें यहीं बसेरा ..
गर भूल गये हों आप
रफ्तारों को ,कतारों को ....
अरे ट्रेन तो पकड़ी ही होगी आपने
आज चलो उसी ‘घर ‘ को चलें

यह रंग भी है अजब ज़िन्दगी का ,
जो दूर से तो फबता है
पर नजदीकियां आँखों में देती हैं चुभन !
ठीक वैसे ही जैसे ये भागती भीड़
यूँ तो नही करती असर
पर जब हम हों हिस्सा उस ‘सैलाब ‘ का
तो कुछ भुनभुनाहट आ जाती है ,
कभी त्योरियाँ चढ़ जाती हैं
तो कभी ‘बढती आबादी ‘लगती खटकने ऐसे ही
वह गज भर की जगह
एक घरौंदा
किसी का ‘सब कुछ ‘ होता है
ताउम्र मोल चुकाएगा कोई उसे अपना बनाने के लिए

ऐसी कितनी जिंदगियों को पार कर
होता है आज का यह ‘ सफ़र ‘ पूरा
और फिर ऐसी भी होती है इक ज़िन्दगी !

मुंबई के ये रंग हर दफ़ा  जब भी मैं आई.आई. टी की दुनिया से बाहर निकलती हूँ मुझसे रूबरू होते हैं.सपनों का शहर –ग्लैमर की चकाचौंध ,कुछ नया करने का सोचने वाला दिमाग ;सभी का यह शहर बाँहें  फैलाये स्वागत करता है –लोकल में बैठे बैठे आज फिर  मैं इसी ज़िन्दगी के अलग-अलग पन्नों को पढ़ रही हूँ !

रहते हुए तीसरा बरस है मेरा यहाँ पर एक घर मेरा भी है –मेरा ठौर ,मेरा हॉस्टल ....कभी कभी सोचती थी कि यार लड़कियों (खासकर ) के लिए मुंबई ही सबसे अच्छा शहर है पढने और जॉब के लिए ...
खैर सब कुछ खेल नज़रिए का ही तो है –हो सकता है किसी को इस शहर ने कडवी यादें दी हों तो कसी को हमेशा के लिए इसे छोड़ने पर मजबूर कर दिया हो ...पर अभी तक मेरे लिए इस शहर के मायने कई हैं .और हर वक़्त पापा के सुरक्षा के घेरे में चलने वाली स्पर्श अब बड़ी हो गयी थी उसे अब हर काम अकेले करना था और ये बड़ा रोमांचक और मजेदार प्रतीत होता था ....और बस इस तरह धीरे धीरे इस शहर से दिल जुड़ गया .....:) J








       

बुधवार, 21 अगस्त 2013

जहाँ डरते हैं लोग घर बसने से,
हम लोगों के आशियां सजाते हैं |

जहाँ डरते हैं लोग फूल  खिलाने से,
हम लोगों के मूर्छे हुए फूल खिलते हैं |

जहाँ डरते हैं लोग मंजिल के रोडों से,
हम अपना मार्ग स्वयं बनाते हैं |

जहाँ तड़प है डाई आखर प्रेम की,
हम लोगों को भीनी सी मुस्कान दे जाते हैं |

जहाँ इश्क अभाव में दुनिया रोती है,
हम मोहब्बत के पैगंबर बन कर आते हैं |

यहाँ दिल खिलते है,मन मिलते हैं,
बंदी का पता नहीं,बंधुओं का अपार प्यार मिलता है|

हम है सिविल की मचाऊ जनता,
हम से है इस विराट संसार का आकार बनता |

                                                                            - आदित्य झुनझुनवाला

गुरुवार, 15 अगस्त 2013

जलियांवाला बाग़ : इतिहास के झरोखों से 

 स्वतंत्रता दिवस पर विशेष

१३ अप्रैल १९१९ के पहले जलियांवाला बाग़  अन्य किसी सामान्य बाग़ की तरह ही था. स्वर्ण मंदिर के नजदीक स्थित इस बाग़ का नाम जलियावाला इसके पुराने मलिक के नाम पर है . यह बाग़ चारो तरफ से ऊँची दीवालों से घिरा है, जिसके  बाहर निकलने के लिए सिर्फ एक तरफ का संकरा रास्ता है. इस बाग़ में एक कुआँ एवं एक छोटा सा मंदिर भी है. इस वर्ष के  ग्रीष्मावकाश  में मुझे इस तीर्थ के दर्शन का  अवसर मिला.


आज यहाँ बेहद शांति है. आसमान में सूरज निखर आया है . बड़ी संख्या में लोग इस बाग़ में घुमने आये हैं.  विश्वास ही नहीं होता यहीं वह जगह है , जहाँ कभी जनरल डायर संकरे रास्ते से कुछ सैनिको के साथ आ कर एक निहत्थी सभा कर रहे लोगों पर गोलियां चलाता है.


जलियाँवाला बाग़ में प्रवेश का संकरा रास्ता




जरा कैलेण्डर को पीछे घुमा कर देखते हैं.  
अप्रैल १९१९ , सारे देश की तरह अमृतसर शहर में भी महात्मा गाँधी के आह्वान पर सत्याग्रह का आन्दोलन जोड़ पकड़ने लगता है. ६ अप्रैल १९१९ को अमृतसर में एक आम हड़ताल रखी जाती है. आज  ९ अप्रैल रामनवमी का दिन है. सत्याग्रह के समर्थन में एक बड़ी रैली निकाली जा रही है. इस रैली के नेता डॉ सैफुदीन किचलू एवं डॉ सत्यपाल को पुलिस गिरफ्तार करके धर्मशाला भेज देती है.


 डॉ सैफुदीन किचलू 

डॉ सत्यपाल 
अगले दिन कुछ लोग उप कमिश्नर से मिलकर इन दोनों के रिहाई के लिए ज्ञापन देना चाहते है. लेकिन इनके ऊपर गोलियां चला दी जाती है. शहर में हिंसा भड़क उठती है, बेंक एवं रेलवे स्टशन को निशाना बनाया जाता है. फिर १२ अप्रैल को दो अन्य स्थानीय नेताओ चौधरी बग्गामल और महाशय रतनचंद को गिरफ्तार किया जाता है. शहर के नागरिक प्रशासन की जिम्मेवारी ब्रिगेडियर जनरल आर ई अच् डायर को दे दी जाती है. जो शहर में कफ्यू लगाता है एवं अपने सैनिको को किसी को सड़क पर देखते ही गोली मारने का आदेश देता है. लेकिन इस बात की सूचना का प्रचार नागरिको के बीच नहीं कराया जाता है.
१३ अप्रैल १९१९ , आज बैशाखी का दिन है. जालियावाला बैग में शाम में एक आम सभा हो रही है.  सूर्यास्त होने में कुल १० मिनट के करीब शेष रहे होंगे. लेकिन तभी जनरल डायर १५० सैनिको के साथ यहाँ दाखिल होता और अंधाधुंध गोलियां चला देता है. लोग जान बचाने की लिए जमीन पर लेट रहे है. तो कोई आवेश में आकर आगे बढ़ रहा है. कई लोग कुएं  में कूद कर जान बचाने की कोशिश कर रहे हैं. 
शहीदी कुआँ 
लेकिन तभी गोलियां उधर चलने लगती है. लोग दीवारों पर चढ़ने की कोशिश कर रहे हैं,
दीवारों पर गोलियों के निशान 
  डायर उन दीवारों की तरफ अपने सैनिको को इशारा कर रहा है. गोलियां चलती है, लोग गिर जाते हैं. चारो तरफ से चीखें हैं, क्रंदन हैं , लाशें हैं. सूर्यास्त हो चूका है . करीब ४०० लोग दम तोड़ चुके हैं .शहर में कफ्यू है, लोग अपने मित्रो को इलाज या  अंतिम संस्कार के लिए भी नहीं ले जा पा रहे हैं.

केलेंडर को फिर समेटते हैं, और वर्तमान मैं लौटते है.
भाई साहेब थोडा सा हतियेगा , एक तस्वीर निकालनी है.
जरुर साब जी ..
शहीद स्मारक 

हँसते खिलते बच्चे एवं उनके परिवार शहीद स्मारक के  नजदीक जा कर फोटो के लिए पोज दे रहे है.  बाग़ के एक और एक छोटा सा संग्रहालय है, जहाँ इस घटना, उस समय के समाचार पत्रों में इसके कवरेज एवं तात्कालिक परिस्थितयों के बारे में विस्तार से  लिखा है. रविन्द्रनाथ टगोर द्वारा सर की उपाधि वापस करने से लेकर चर्चिल के ब्यान तक मौजूद है.  लेकिन मुझे दुःख इस बात का लगा, बहुत खोजने पर भी मुझे कोई ऐसा दस्तावेज या डायरी देखने को नहीं मिला ,जहाँ शहीद हुए सभी लोगों का नाम या तस्वीर उपलब्ध हो . हाँ यदा कदा कुछ संस्मरणों में कुछ शहीदों की तस्वीरें एवं उनकी कहानियां जरुर लिखी है. यह सही है, उनकी शहीदी किसी नाम या परिचय का मोहताज नहीं , वो सब अपने वतन पर मिटने वाले लोग थे. लेकिन  हमारी जनतांत्रिक सरकार इस दिशा में थोडा पहल तो कर ही सकती है. 

सग्रहालय में बनी एक पेंटिंग 

- नेपथ्य निशांत 

आज़ादी और कुछ सवाल !!

    
आज़ादी के कुछ छियासठ साल पूरे होने को आये हैं ! और हर बार हम सोचते हैं कि शायद अगले साल हम कुछ बेहतर होंगे पर बेहतरी का तो पता नही हम अपने मानकों से नीचे ज़रूर गिरते नज़र आ रहे हैं.हाल ही की ख़बरों पर नज़र डालें तो पाएंगे कि सी.बी.आई. तो अभी भी ‘आज़ाद’ नही हो पायी और न ही इस ‘ तथाकथित ‘लोकतांत्रिक देश में राजनीतिक दलों से यह सहन हुआ कि सूचना के अधिकार के तहत ही सही उन्हें चुनने वाले आम लोग उनसे कोई सवाल पूछ सकें ! हाल ही में देश में संविधान निर्देशित कुछ अधिकारों से जुड़े गंभीर प्रश्न हमारे समक्ष और भी डटकर खड़े हो गये हैं मसलन क्या देश के नौनिहालों को साफ सुथरे माहौल में पोषक आहार पाने का अधिकार नही है ,क्या एक गरीब की पेट की आग और उसकी ज़िन्दगी इतनी सस्ती है ?; क्या समाज के एक तबके से उनकी आजीविका के अधिकार को छीनने के बाद उनसे जीने की सभी उम्मीदें भी ले लेना चाहिए ,जितनी संवेदना सुरक्षा को लेकर है क्या वो इस बात की अनुमति देती है कि आप उसी तबके की ज़िन्दगी गर्त में धकेल दें ;क्या भाषा और अन्य के आधार पर बँटता जा रहा यह देश पहले से ही नक्सलवाद जैसे आन्तरिक शत्रुओं से नही जूझ रहा है और पहले से ही हज़ार हिस्सों में बंटा हुआ है !क्या एक माँ जिसके पहले से ही इतने सारे बच्चे हों और सब किसी न किसी समस्या से जूझ रहे हों तब एक और बच्चे का जन्म क्या कुछ बेहतर करेगा ?;क्या इससे बाकी बच्चे भी बिदक नहीं जायेंगे ?क्या ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा को पालने वालों को ऐसे ही ‘तोहफे’ मिलते रहेंगे ? ;क्या सभी गलतियाँ सरकार की हैं या हम और हमारा समाज जो इस देश को बनाता है -भी इसके कहीं न कहीं ज़िम्मेदार हैं ? क्या एक लोकतंत्र में अपने अधिकारों के तहत राजनीतिक दलों से सवाल पूछने का हक बेमानी है ? क्या हम सचमुच ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी ‘का जश्न मना सकते हैं इतने सालों बाद भी पूरी तरह ? क्या पुलिस ,क़ानून की असंवेदनशीलता को अब भी हम चुपचाप झेलने की हालत में हैं ? क्या अब भी हम स्वार्थी बने रहना चाहते हैं ;क्या अब भी हम छोटे छोटे ,निरर्थक और अनावश्यक प्रपंचों और बातों में पड़े रहकर अपने देश की नैय्या को डूबते रहने देना चाहते हैं क्यूंकि हम उन अभागों में से नही हैं जिनके लिए ज़िन्दगी का हर दिन एक जंग के बराबर है !!

खैर प्रश्नों की यह फेहरिस्त निहायत ही लम्बी है पर अब हरेक को गिनाने की शायद ज़रुरत नही होगी क्यूंकि ये सवाल कहीं न कहीं हम में से हरेक की ज़िन्दगी और वजूद से राब्ता रखते हैं इसीलिए यह कुछ सवाल आपके विवेक और ज़ज्बे को जगाने के लिए काफी हैं !! वो ज़ज्बा जो सिस्टम की गंदगी की दुर्गन्ध से नाक मुंह को सिकोड़ने की बजाय खुद उस में उतरने कर उसे साफ़ करने का हो ,जोकि हमेशा सरकार जो हमारे ही वोटों से बनी है उसे उसके काम तो याद दिलाये ही पर खुद हमें भी एक नागरिक के कर्त्तव्य और ज़िम्मेदारी का भी एहसास कराये क्यूंकि अपने गिरेबान में झांकेंगे तो पाएंगे कि उसे आका हमने ही बनाया है और वो हमारे जैसा ही एक इंसान है!

कहते हैं एक लकीर को ऐसे छोटा किया जा सकता है कि हम उसके सामने एक और बड़ी लकीर खींच दें तो बस हमें वही करना है सरकार की लकीर को अगर सीधा करना संभव हो तो करो नही तो जी जान लगाकर एक इतनी बड़ी लकीर खींचों कि सब की नज़रें बस अब उस नयी लकीर पर हो !! वैसे एक बात जो अक्सर हमारे जैसे सोशल नेटवर्क पर बात करने वालों को शायद सुनने को मिलती हो कि क्या हो जायेगा चर्चा करके,लिखके , एक पेटिशन साईन करके तो ऐसे लोगों के लिए मेरे चेहरे पर एक मंद सी मुस्कराहट आ जाती है और एक ही जवाब जोकि एक प्रश्न है-होता है कि क्या आप अभी भी जनता याने कि खुद की आवाज़ ,दबाव और ताक़त से नावाकिफ हैं ? दरअसल हमारी पीढ़ी को ‘प्रवचन’ सुनने की आदत नही है इसीलिए ऐसे लोगों के साथ तर्क वितर्क शायद कोई परिणाम ना लाये पर जब आप खुद से ये सवाल करेंगे तो पायेंगे कि भले ही इस देश में कितना गड़बड़ घोटाला हो रहा हो ,कितनी ही ‘दुर्गा’ सज़ा पा रही हों ,कितनी ही निर्भया बेआबरू हो रही हों पर इन मुद्दों पर चर्चा और न्याय की संस्थाओं को हिलाने का माद्दा आज भी हमारे पास सुरक्षित है !! क्यूंकि वो ‘शौर्य ‘ ,वो आतंक, तानाशाही और अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाना न सिर्फ हमारी ज़रुरत है बल्कि वक़्त की बेसब्र मांग भी है !!

(आप कॉर्पोरेट जॉब में हैं ,ढेरों बधाईयाँ !! पर जनाब मैक डोनाल्डस में खाने वाले ,एयर कंडिशनर की हवा में मुस्कुराने वाले आप –कभी यह ख्याल नही आता आपके दिमाग में कि देश तकनीकी तरक्की काफी कर चुका है और उसकी फ़िक्र करने वाले बैठे हैं न संसद में पर नंगे भूखे ‘हल्कू’ की तकलीफ की कहानियाँ सिर्फ कचौरी खाकर फेंक दिए गये अख़बार के टुकड़े में दबी कूड़ेदान में चली जाती हैं !! )
तो बस हमारे जैसे और आपके जैसे युवाओं की ,जोशीले लोगों की ज़रुरत है इस मुल्क को वरना कहीं हम फिर से ‘देसी’ हुकूमत के गुलामी के शिकंजे में जकड न जायें !!
उठो ,जागो और अपने लक्ष्य की प्राप्ति तक न रुको (स्वामी विवेकानंद)
                                                                                            - स्पर्श चौधरी