बुधवार, 27 मार्च 2013

फाग!



आओ खेले फाग रे

भई भोर अब जाग रे

मुंडेर पे देखो बैठा काग रे

रंग जा , तू

लो पिचकारी और दाग रे

लगा लियो साबुन और झाग रे

गाओ कोई दिल का राग रे

खूब मचाओ, अनुराग रे

मुंडेर पे देखो बैठा काग रे

आओ खेले फाग रे

                                             ---------------नेपथ्य निशांत

बुधवार, 20 मार्च 2013

इस्लाम से पुरानी है पाकिस्तान की तारीख

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इस्लामी जम्हूरिया पाकिस्तान की तारीख़ हिन्दुस्तान से बहुत पुरानी है, बल्कि इस्लाम से भी पुरानी है। जब आठवीं सदी में मुहम्मद बिन क़ासिम इस्लाम फैलाने बार-ए-सगीर तशरीफ लाए तो ये जान कर शर्मिंदा हुए कि यहां तो पहले ही इस्लामी रियासत मौजूद है।
यहां कुफ्र का जनम तो हुआ जलालुद्दीन अकबर के दौर में, जो इस्लाम को झुठलाकर अपना मज़हब बनाने को चल दिया, शायद अल्लाह-हो-अकबर के लुगवी मानी ले गया था।
बहरहाल, इन काफिरों ने बुतपरस्ती और मेहकशी जैसे गैरमुनासिब काम शुरू कर दिए और अपने आप को हिंदू बुलाने लगे। शराब की आमद से पाकिस्तान की वो ताक़त ना रही जो तारीख़ के तसल्सुल से होनी चाहिए थी। इसकी वजह ये नहीं थी कि मुसलमान शराब पीने लग पड़े थे, बल्कि ये कि उनकी सारी कुव्वत-ए-नफ्स शराब को ना पीने में वक्फ हो जाती थी, हुक्मरानी के लिए बचता ही क्या था। इसके बावजूद मुसलमानों ने मज़ीद दो सौ साल पाकिस्तान पर राज किया, फिर कुछ दिनों के लिए अंग्रेजों हुकूमत आ गई। (हमारी तफ्तीश के मुताबिक यही कोई चालिस हज़ार दिन होंगे)
सन् 1900 तक पाकिस्तान के मुसलमानों की हालत नासाज़ हो चुकी थी। इस दौरान एक अहम शख्सियत हमारी ख़िदमत में हाज़िर हुई, जिसका नाम अल्लामा इक़बाल था। इक़बाल ने हमें दो क़ौमी नज़रिया दिया। यही इनसे पहले सईद अहमद ख़ान ने भी दिया था, मगर इन्होंने ज़्यादा दिया। इस नज़रिये के मुताबिक पाकिस्तान में दो फर्क कौमें मौजूद थीं, एक हुक्मरानी के लायक मुसलमान कौम और एक गुलामी के लायक हिंदू कौम। इन दोनों का आपस में समझौता मुमकिन नहीं था।
सैयद अहमद खान ने भी मुसलमानों के लिए अंथक मेहनत की, मगर बीच में अंग्रेज़ के सामने सिर झुका कर सर का ख़िताब ले लिया। अंग्रेज़ी तालीम की वाह-वाह करने लगे। भला अंग्रेज़ी सीखने से किसी को क्या फ़ायदा। हर ज़रूरी चीज़ तो उर्दू में थी, पुरानी भी। सहाब-ए-कराम उर्दू बोलते थे। नबी-ए-करीम खुद भी। आपने अक्सर हदीस सुनी होगी, दीन में कोई जब्बार नहीं, ये उर्दू नहीं तो क्या है? अंग्रेज़ी में क्या था? बहरहाल इक़बाल से मुतास्सिर होकर एक गुजराती बैरिस्टर ने अंग्रेजों से छुटकारा हासिल करने की तहरीक शुरू कर दी। इस तहरीक का जोश और वलवले के साथ इस्तक़बाल किया।
इस बैरिस्टर का नाम मोहम्मद अली जिन्ना उर्फ क़ायद-ए-आज़म था। इन्होंने पाकिस्तान से आम तालीम हासिल करने के बाद ब्रिटेन से आला तालीम हासिल की और बैरिस्टर हो गए। क़ायद-ए-आज़म को भी सर का ख़िताब पेश किया गया था, बल्कि मलिका ब्रतानिया तो कहने लगीं कि अब से आप हमारे मुल्क में रहेंगे, बल्कि हमारे महल में रहेंगे और हम कहीं किराये पर घर ले लेंगे। मगर क़ायद की सांसें तो पाकिस्तान से वाबस्ता थीं, वो अपने मुल्क को कैसे नज़रअंदाज कर सकते थे।
1934 में क़ायद वापस आए तो पाकिस्तान का सियासी माहौल बदल चुका था। लोग मायूसी में मुब्तला थे। उधर दूसरी जंग-ए-अज़ीम शुरू होने वाली थी और गांधीजी ने अपनी फूहश नंग-धड़ंग मुहिम चला रखी थी। कभी इधर कपड़े उतारे बैठ जाते थे, कभी उधर। साथ एक नेहरू नामी हिंदू इक़बाल के दो क़ौमी नज़रिये का ग़लत मतलब निकाल बैठा था, लोग कहते हैं कि नेहरू बचपन से ही अलहदगी पसंद था। घर में अलहदा रहता था, खाना अलहदा बर्तन में खाता था और अपने खिलौने भी बाकी बच्चों से अलहदा रखता था। नेहरू का क़ायद-ए-आज़म के साथ वैसे भी मुक़ाबला था, पढ़ाई लिखाई में, सियासत में, मोहल्ले की लड़कियां ताड़ने में। ज़ाहिर है जीत हमेशा क़ायद की होती थी। लॉ के पर्चों में भी उनके नेहरू से ज़्यादा नंबर थे।
आज़ादी क़रीब थी। मुसलमानों का ख्वाब सच्चा होने वाला था, फिर नेहरू ने अपना पत्ता खेला। कहने लगा कि हिंदुओं को अलग मुल्क चाहिए। ये सिला दिया उन्होंने उस क़ौम का, जिसने उन्हें जनम दिया, पाल-पोस कर बड़ा किया। हमारी बिल्ली हमे ही भाव? नेहरू की साज़िश के बाइस जब 14 अगस्त 1947 को अंग्रेज़ यहां से लौट कर गए तो पाकिस्तानव के दो हिस्से कर गए।
अलहेदगी के फौरन बाद हिन्दुस्तान ने कश्मीर पर कब्ज़े का एलान कर दिया। दोनों मुल्कों के पटवारी फीते लेकर पहुंच गए। हमसाए मुमालिक फितरत से मजबूर तमाशा देखने पहुंच गए। खूब तू-तू, मैं-मैं हुई, गोलियां चलीं, बहुत सारे इंसान ज़ख्मी हुए, कुछ फौजी भी। फिर हिंदुओं ने एक और बड़ी साज़िश ये की कि पाकिस्तान से जाते हुए हमारे दो-तीन दरिया भी साथ ले गए। ये पूछना भी गवारा नहीं किया कि भाई, चाहिए तो नहीं? कपड़े वगैरह धो लिए? भैंसों ने नहा लिया?
ये मुआमलात अभी तक नहीं सुलझे, इसलिए इन पर मज़ीद बात करना बेकार है। तारीख़ सिर्फ वो होती है जो सुलझ चुकी हो या कम से कम दफ़न हो चुकी हो, जिस तरह क़ायद-ए-आज़म आज़ादी के दूसरे साल में हो गए। वो उस साल वैसे भी कुछ अलील थे और क्योंकि क़ौम की भरपूर दुआएं उनके साथ थीं, इसलिए जल्द ही वफात पा गए।
जिन्ना की वफात के बाद बहुत सारे लोगों ने क़ायद बनने की कोशिश की। इनमें पहले लियाक़त अली ख़ान थे, क्योंकि ख़ान साहेब अलील नहीं हो रहे थे (और उनको तीन साल का मौका दिया गया था इस आसान मश्क़ के लिए) लिहाज़ा उनको 1951 में खुद ही मामा पड़ा। फिर आए ख्वाज़ा निज़ामुद्दीन। अब नाम का नाज़िम हो और ओहदे का वज़ीर, ये बात किसको लुभाती है। इसलिए चंद ही अरसे में गवर्नर जनरल गुलाम मोहम्मद ने इनकी छुट्टी कर दी। जी हां, पाकिस्तान में उस वक्त सदर की बजाय गवर्नर जनरल होता था। आने वाले सालों में इख्तिसार की मुनासिबत से ये सिर्फ जनरल रह गए, गवर्नर गायब हो गया।
जनरल का ओहदा पाकिस्तान का सबसे बड़ा सियासी ओहदा है। उसके बाद कर्नल, मेजर वगैरह आते हैं। आखिर में वज़ीर मुशीर आती हैं। पाकिस्तान की आज़ादी के कई सालों तक कोई हमे आईन ना दे पाया। फिर जब इस्कंदर मिर्ज़ा ने आईन नाफिज़ किया तो उसमें जरनैलों को अपना मुक़ाम पसंद नहीं आया। आईन और इस्कंदर मिर्ज़ा को एक साथ उठाकर फेंक दिया गया। फील्ड मार्शल अयूब ख़ान ने हुकूमत संभाल ली। लड़खड़ा रही थी, किसी ने तो संभालनी थी। इस फैसले का क़ौम ने जोश और वलवले के साथ इस्तक़बाल किया।
अयूब ख़ान जमहूरियत को बेहाल करने, हमारा मतलब है, बहाल करने आया था। असल में जम्हूरियत क़ौम की शिरकत से नहीं मज़बूत होती, इमारतों और दीवारों की तरह सीमेंट से मज़बूत होती है, फौजी सीमेंट से। जी हां, आप भी अपनी जम्हूरियत के लिए फौजी सीमेंट का आज ही इंतिख़ाब करें। इस मौक़े पर शायर ने क्या ख़ूब कहा है- फौज़ी सीमेंटः पायेदार, लज़्ज़तदार, आलमदार।
अयूब ख़ान ने अपने दौर में कुछ मखोलिया इलेक्शन करवाए ताकि लोग अच्छी तरह वोट डालना सीख लें और जब असल इलेक्शन की बारी आए तो कोई गलती ना हो। मगर जब 1970 के इलेक्शन हुए तो लोगों ने फिर गलती कर दी, एक फितने को वोट डाल दिए। इस पर आगे तफ्सील में बात होगी। वैसे अयूब ख़ान का दौर तरक्की का दौर भी था। उन्होंने दावा किया था कि वो पाकिस्तान को मंजिल-ए-मक्सूद तक पहुंचाएंगे। मक्सूद कौन था और किस मंजिल में रहता था, ये हम नहीं जानते, मगर इस ऐलान का कौम ने जोश और वलवले के साथ इस्तक़बाल किया।
1965 में हिन्दुस्तान ने हमारी मिल्कियत में दोबारा टांग अड़ाई, जंग का भी ऐलान कर दिया, लेकिन बेइमान होने का पूरा सबूत दिया। हमे कश्मीर का कहकर खुद लाहौर पहुंच गए। हमारी फौज वादियों में ठंड से बेहाल हो गई और ये इधर शालीमार बाग़ की सैरें करते रहे। इस दग़ाबाज़ी के खिलाफ अयूब खान ने अक्वाम-ए-मुत्ताहेदा को शिकायत लगाई। वो ख़फा हुए और हिन्दुस्तान को एक कोने में हाथ ऊपर करके खड़े होने की सज़ा मिली, जैसे कि मिलनी चाहिए थी। इस फैसले का भी क़ौम ने जोश और वलवले के साथ स्वागत किया।
मगर हिंदू वो, जो बाज़ ना आए। 1971 में जब हम सबको इल्म हुआ कि बंगाली भी दरअसल पाकिस्तान का हिस्सा हैं, तो हिंदू उधर भी हमलावर हो गए। अब आप खुद बताएं, इतनी दूर जाकर जंग लड़ना किसको भाता है? हमने चंद हज़ार फौजी भेज दिए, इतना कहकर कि अगर दिल करे तो लड़ लेना। वैसे मजबूरी कोई नहीं है। मगर हिंदुओं को खुलूस कौन सिखाए, उन्होंने ना सिर्फ हमारे फौजियों के साथ बदतमीज़ी की बल्कि उन्हें कई साल तक वापस भी नहीं आने दिया। बंगाल भी हमारे से जुदा कर दिया और तशद्दुद के सच्चे इल्ज़ामात भी लगाए। आख़िर सच्चा इल्ज़मा झूठे इल्ज़ाम से ज़्यादा ख़तरनाक होता है क्योंकि वो साबित भी हो सकता है।
इसके बाद दुनिया में हमारी काफी बदनामी हुई। लोग यहां आना पसंद नहीं करते थे बल्कि हमारे हमसाए मुमालिक भी किसी दूसरे बार-ए-आज़म में जगह तलाश करने लगे कि इनके पास तो रहना ही फिज़ूल है। ऐसे मौके पर हमें एक मुस्तक़िल मिजाज़ और दानिशवर लीडर की ज़रूरत थी, मगर हमारे नसीब में ज़ुल्फिक़ार अली भुट्टो था। जी हां, वही फितना जिसका कुछ देर पहले ज़िक्र हुआ था।
भुट्टो एक छोटी सोच का छोटा आदमी था, उसके ख्याल में मुसलमानों की तक़दीर रोटी, कपड़े और मकान तक महदूद थी। उसके पाकिस्तान में महलों और तख़्तों और शहंशाही की जगह नहीं थी, हमारी अपनी तारीख़ से महरूम कर देना चाहता था हमें। भुट्टो से पहले हम रूस से इस्तेमाल शुदा हथियार मंगाते होते थे। भुट्टो ने रूस से इस्तेमाल शुदा नज़रिया भी मांग लिया, लेकिन इस्तेमाल शुदा चीज़ें कम ही चलती हैं। ना कभी वो हथियार चले, ना नज़रिया।
तमाम सनत ज़ब्त करके सरकारी खाते में डाल दी गई। साम्यकारी की खूब आत्मा रोली गई, उसको मजाज़ी तौर पर दफना कर उसकी मजाज़ी कब्र पर मुजरे किए गए। लोगों से उनकी ज़मीनें छीन ली गईं। वो ज़मीनें भी जो उन्होंने किसी और के नाम पर लिखवाई हुई थीं। ये ज़ुल्मत नहीं तो क्या है? ये पाकिस्तान का सबसे तश्विशनाक मरहला था, ऐसे में क़ौमी सलामती के लिए आगे बढ़े हज़रत जनरल ज़िया-उल-हक़, (रहमतुल्लाह अलह)।
उन्होंने भुट्टो से हुकूमत छीन ली और उनर क़ातिल और मुल्क दुश्मन होने के इल्ज़ामात लगा दिए। ज़िया-उल-हक़ ने कानून का एहतराम करते हुए भुट्टो को अदालत का वक्त ज़ाया नहीं करने दिया। बस इल्ज़ाम की बिना पर ही फैसला ले लिया और भुट्टो को फांसी दिलवा दी। इस हरकत का कौम ने जोश और वलवले के साथ इस्तक़बाल किया।
हज़रत ज़िया-उल-हक़ पाकिस्तानियों के लिए एक नमूना थे, हमारा मतलब है, मिसाली नमूना। उन्होंने यहां शरियत का तार्रुफ करवाया, हद के क़वानीन लगाए, नशाबंदी कराई। इस इक़दाम का क़ौम ने होश और वलवले के साथ इस्तक़बाल किया।
उनके दौर में हमारी फौज-अल-अज़ीम ने रूस पर जंगी फतह हासिल की। रूस अफगानिस्तान में जंग लामय आया था। उसने सोचा होगा कि यहां अफगानियों से लड़ाई होगी, ये उसकी खेमख्याली थी। इस मौक़े पर शायर ने खूब कहा है- तेरा जूता है जापानी, ये बंदूक इंग्लिस्तानी, सिर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी जीत गए पाकिस्तानी।
आखिर अफसोस कि इस्लाम के इस मुजाहिद के खिलाफ बाहरी ताक़तें साज़िश कर रही थीं। 1987 में यहूद-ए-नसारा ने इनके जहाज़ में से इंजन निकालकर पानी का नल्का लगा दिया, इसलिए परवाज़ के दौरान आसमान से गिर पड़ा और टूट के चूर हो गया। ज़िया-उल-हक़ भी टूट कर चूर हो गए और पाकिस्तान टूटे बग़ैर चूर हो गया क्योंकि हुकूमत में वापस आ गया भुट्टो ख़ानदान।
जैसा बाप, वैसी बेटी। इख्तियार में आते ही बेनज़ीर ने इस मुल्क को वो लूटा, वो खाया कि जो लोग ज़िया-उल-हक़ के दौर में बंगलों में रिहाइश पज़ीर थे, अब सड़कों पर रुलने लगे। जल्द ही बेनज़ीर को हुकूमत से ढकेल दिया गया और उसकी जगह बैठा दिया मियां मोहम्मद नवाज़ शरीफ को। लेकिन मियां साहेब ज़्यादा देर नहीं बैठ सके, उन्होंने आगे कहीं जाना था शायद और कुछ अरसे बाद बेनज़ीर वापस आ गईं। बेनज़ीर का दूसरा दौर-ए-हुकूमत मुल्क के लिए और बुरा साबित हुआ, पर ये अभी साबित हो ही रहा था कि उनकी हुकूमत को फिर से खत्म कर दिया गया। एक मर्तबा दोबारा नवाज़ शरीफ को ले आया गया। इस कारनामे का क़ौम ने जोश और वलवले के साथ इस्तक़बाल किया।
हां, नवाज़ शरीफ ने इस दौरान एक अच्छा काम ज़रूर किया। वो हमें एटमी हथियार दे गया, इसके होते हुए हमें कोई कुछ नहीं कह सकता था, इसके बलबूते पर हम दिल्ली से लेकर दिल्ली के इर्द-गिर्द कुछ बस्तियों तक, कहीं भी हमला कर सकते थे। अगर आपको भी लोग बातें बनाते हैं, तंग करते हैं, घर पर, काम पर तो एटमी हथियार बना लीजिए। ख़ुद ही बाज़ आ जाएंगे।
मगर ये बात अमरीका को पसंद नहीं आई और नवाज़ शरीफ उनके साथ वो ताल्लुक ना रख पाए जोकि एक इस्लामी रियासत के होने चाहिएं (मसलन सउदी वगैरह)। ऊपर से मियां साहेब ने कारगिल ऑपरेशन की भी मुखालिफत की, हालांकि हमारे से कसम उठवा लें जो मियां साहेब को पता हो कि कारगिल है कहां। इस बुज़दिली का सामना करने और पाकिस्तान को राह-ए-रास्त पर लाने का बोझ अब एक और जनरल परवेज़ मुशर्रफ के गले पड़ा और वो इस आज़माइश पर पूरा उतरे। उन्होंने आते के साथ क़ौम का दिल और खज़ाना लूट लिया।
परवेज़ मुशर्रफ का दौर भी तरक्की का दौर था, मुल्क में बाहर से बहुत सारा पैसा आया, खासकर अमरीका से। अमरीका को किसी ओसामा नामी आदमी की तलाश थी। हमने फौरन उन्हें दावत दी कि पाकिस्तान आकर ढूंढ लें, यहां पर हर दूसरे आदमी का नाम ओसामा है। मुशर्रफ साहेब का अपना नाम ओसामा पड़ते-पड़ते रह गया था। मुशर्रफ साहेब का दौर इंसाफ का दौर था, कोई नहीं कहता था कि इंसाफ नहीं मिल रहा बल्कि कहते थे कि इतना इंसाफ मिल रहा है कि समझ नहीं आती इसके साथ क्या करें? मगर उनके खिलाफ भी साज़िशी कार्रवाई शुरू थी। एक भेंगे जज ने शोर डाल दिया कि उन्होंने क़ौम के साथ ज़्यादती की है। क़ौम भी इनकी बातों में आकर समझने लगी कि उसके साथ ज़्यादती हुई है। लोग मुशर्रफ को कहने लगे कि वर्दी उतार दो। अब भला ये कैसी नाज़ेबा दरख्वास्त है। वैसे भी वर्दी तो वो रोज़ उतारते थे, आखिर वर्दी में सोते तो नहीं थे। मगर लोग मुतमईन नहीं हुए, वर्दी उतारनी पड़ी। ताक़त छोड़नी पड़ी। आम इंतिखाबात का ऐलान करना पड़ा।
बेनज़ीर भुट्टो साहिबा मुल्क वापस आईं, लेकिन सेहत ठीक ना होने की बाइस वो अपने ऊपर जानलेवा हमला नहीं बर्दाश्त कर पाईं। सियासत में जानलेवा हमले तो होते रहते हैं। मुशर्रफ साहेब ने खुद झेले, अभी तक जिंदा हैं, यही उनकी लीडरी का सबूत है। फिर भी इन इंतिखाबात में जीत पीपुल्स पार्टी की ही हुई। बेनज़ीर की बेवा, आसिफ अली ज़रदारी को सरदार मुंतखिब कर दिया गया। इससे पार्टी में बदला कुछ नहीं, फरक इतना पड़ा कि बेनज़ीर सिर्फ बाप की तस्वीर लगाकर तकरीब करती थी, ज़रदारी को दौ तस्वीरें लगानी पड़ती थीं।
अब पाकिस्तान के हालात फिर बिगड़ते जा रहे हैं। बिजली नहीं है, गैस नहीं है, अमन-ओ-इमान नहीं है, इक्तिदार में लुटेरे बैठे हुए हैं। फौज फिर से मुंतज़िर है कि कब आवाम पुकारे और कब वो आकर मुआशरे की इस्लाह करें। अच्छे-खासे लगे हुए मार्शल ला के दरमियान जब जम्हूरियत नाफिज़ हो जाती है तो तमाम निज़ाम उल्टा-सीधा हो जाता है। पिछली इस्लाह का कोई फायदा नहीं रहता, नए सिरे से इस्लाह करनी पड़ती है।
अभी कुछ ही रोज़ पहले ही सदर ज़रदारी दिल के दौरे पर मुल्क से बाहर गए थे। पीछे से साबिक़ क्रिकेटर इमरान खान जलसे पे जलसा कर रहे हैं। लोग कहते हैं कि इमरान खान फौज के साथ मिलकर हुकूमत को हटाना चाहता है। लोगों के मुंह में घी-शक्कर। शायर ने भी इमरान खान के बारे में क्या खूब कहा है- जब भी कोई वर्दी देखूं, मेरा दिल दीवाना बोले, ओले, ओले, ओले। उम्मीद रखें, जैसे लोग कहते हैं, वैसा ही हो। और इसके साथ हमारे मज़मून का वक्त खत्म हुआ चाहता है। हमें यक़ीन है इस बात का क़ौम जोश और वलवले के साथ इस्तकबाल कराएगी।

(हसीब आसिफ पाकिस्तान के मज़ाह निगार हैं। यह व्यंग्य काफिला से साभार। )

शनिवार, 16 मार्च 2013

नारी : मजबूर या दोषी ?



 
 आज जहां समाज में नारी बहुत ही मजबूर प्रतीत होती है और उसकी मजबूरी का सम्पूण दारोमदार पुरुष समाज पे डाल दिया जाता है, मैं भी इस समाज का एक अंग होने के नाते ये लेख लिखने के लिए विवश  हूँ !
कहा जाता है, माता - पिता ही बच्चे के पहले अध्यापक होते हैं , वो जो घर से सीखता है वही व्यवहार वो समाज में रह के अपनाता है, दुसरे शब्दों में कहा जाये तो समाज लोगों के बचपन में सीखे हुए संस्कारों का ही आईना होता है । तो आज समाज से पुरुषत्व क्यूँ गायब होता जा रहा है ? बहनों की इज्ज़तें लुट रही हैं , भाई लड़ना नहीं चाहते ! माताओं को बीच बाज़ार चार बदमाश परेशान करके चले जाते हैं , बेटे विरोध करने की जगह लडकियां बने घूम रहे हैं ! ये समाज की आज़ादी है या कायरता ?? और अगर कायरता है तो किसने बनाया है इस समाज को कायर ? घूम फिर के सारी बातें परिवार की उस प्राथमिक सीख पे ही केन्द्रित हो जाती हैं जिसके जिम्मेदार एक बच्चे के माँ- बाप होते हैं , किन्तु समाज का ये बदलाव नया नहीं है और अगर कुछ समय पहले का विश्लेषण करें तो पाएंगे बच्चे अधिकांश समय अपनी माँ के साथ बिताते थे और आज भी अधिकांश घरों की यही स्तिथि है ।
अगर आपको याद हो तो अपने इस समाज में नारियों की शिक्षा प्रारभ ही इसलिए हुई थी कि, वो पढ़- लिख कर एक नए समाज को सही दिशा दें ! उनके बच्चे जो कल का भविष्य हैं, उन्हें उचित संस्कार और ज्ञान दें , उनकी जरूरतों को समझें , उनके लिए एक प्रेरणा स्त्रोत्र बनें । किन्तु, आज जो सक्षम हैं वो स्त्रियाँ समाज कि इस महत्वपूण जिम्मेदारी को उठाने के लिए तैयार नहीं हैं । शिक्षा ग्रहण करते करते उनके खुद के सपने समाज के विकास के उस आवश्यक कार्य पर हावी हो जाते हैं और समाज को शिक्षा देने के लिए ज्यादर बस दो तरह के ही माहौल मिलते हैं ।
एक! जहां माँ को कभी अपनी बात कहने का मौका नहीं मिला , वो अशिक्षित रही , घरेलु हिंसा का शिकार बनी, और अपना सारा लाड़- प्यार अपने बच्चे पे उड़ेल दिया । पर बच्चे को सीखने को क्या मिला - जो दब जाये उसे दबाने का हुनर? बेशक इस सीख में उसका पिता भी बराबर का जिम्मेदार है और दोषी भी किन्तु, माँ शायद उसे अन्याय के खिलाफ खड़ा होना सिखा सकती थी पर उसने उसे जो दिया वो है - "डर", " समझौता " । साफ़- साफ़ कहा जाये तो ये वो बच्चे हैं जो बड़े हो कर अपने से कमजोर को डरायेंगे और जब कोई इनपे हावी हो जायेगा तो ये डर के उससे समझौता कर लेंगे । यानी इनकी सारी  बहादुरी कमजोरों के लिए है , अपनी माँ जैसी नारियों के लिए भी शायद किन्तु, रास्ते पे चलती लड़की को छेड़ने वालों को रोकने की हिम्मत इनमें नहीं है । ये अपने क्रोध से समझौता कर के आगे बढ़ जाते हैं क्यूंकि बचपन में माँ ने अपने लाड़ प्यार की वजह से इन्हें कभी लड़ने झगड़ने न दे कर नपुंसक बना दिया , उसके लिए वो प्यार था उसके एक मात्र सहारे के लिए ! "मेरे बच्चे! मेरे लाल ! स्कूल में नहीं झगड़ते । तुझे भी क्या अपने पापा की तरह बनना है ।" " पर माँ उसने मेरी पेंसिल तोड़ दी ! " " कोई बात नहीं ! माँ तुम्हारे लिए नयी पेंसिल ला देगी " ये एक मामूली सी बातचीत भी समाज को किस तरह पतन की तरफ ले जा सकती है शायद उसको अंदाज़ा ही नहीं होगा ! पिता का ध्यान न देना स्कूल में बच्चों की हरकतों पे गौर न करना भी इतना ही महत्वपूण है पर अगर समाज में समस्या नारियों को ज्यादा है तो सुधरने की जिम्मेदारी भी उनकी होनी चाहिए !
दूसरी तरफ हमे मिलती हैं ऐसी माँ जिन्हें शिक्षा भी मिली , आज़ादी का माहौल भी ! उनके लिए तो बातें और भी सीधी थीं दूसरों को मत देखो, तुम्हे जो करना है वो करो पर इसकी अति भी समाज को ले डूबी । उन्होंने बच्चो की जिम्मेदारी (समाज के भविष्य की जिम्मेदारी ) से ज्यादा महत्वपूण खुद के भविष्य को समझा और उनसे उनके बच्चों ने भी । दूसरों की फिकर मत करो और अपना भविष्य बनाओ, समाज की चिंता तो वो पहले ही छोड़ चुके थे तो किसी राह चलती युवती के लिये किसी से लड़ के अपने भविष्य को खतरे में डालना तो उनके लिये असंभव ही था , उनकी माँ ने उन्हें बचपन में ही सिखा दिया था " तुम्हारी फ़िज़ूल की बातों के लिये मेरे पास वक्त नहीं है, मुझे ऑफिस जाना होता है और भी बहुत से काम हैं ! आगे से कोई लड़ाई - झगड़े की खबर मिली तो बोर्डिंग में भेज देंगे " "पर मेरी बात तो सुनो... " वक्त के ये कमी समाज को इस मुकाम पे ले आएगी शायद उनकी शिक्षा उन्हें ये समझाने में असफल रह गयी ।
समस्या तो अब और भी बढ़ गयी है क्यूंकि ये कहानी एक पीढ़ी पहले की है , अब वो बच्चे बड़े हो गये हैं और अपने बच्चों को वही शिक्षा देने लगे हैं- " तुम्हे वहां पढने भेजा है लड़ने नहीं , जिसकी समस्या है वो खुद देख लेगा। तुम्हे नवाब बनने की जरूरत नहीं है !" और इसी समाज की नारी जब बीच बाजार अपराधियों के सामने हिजड़ों की फौज देखती है तो गुहार लगती है कि, क्या इस समाज में कोई मर्द नहीं है ?
मर्द !! मर्द को मर्द रहने ही कहाँ दिया आपने ! और अब उसके पुरषार्थ को ललकारती हो । अपने भाई , बेटे को कब आपने जगाया , डांटा, मारा, समझाया जब वो बीच सड़क एक औरत को असहाय देख कर खामोश  लौट आया था खुद को बेबस समझ कर ! आप पढ़ी-लिखी औरतों ने कब अपने बेटे को ज्ञान दिया की खुद से ज्यादा महत्वपूण भी कुछ है इस समाज में, आप तो बता सकतीं थीं उसे कि, तेरी माँ पढ़ी लिखी है कोई समस्या आएगी तो मैं देख लूँगी पर, तू कोई अपराध अपनी आँखों के सामने मत होने देना !
एक समय था जब अशिक्षित माँ भी अपने देश के लिये अपने बेटों को कुर्बान कर देती थी , इतना ज्ञान तो उन्हें भी था । हमने शिक्षा भले ही पा ली हो लेकिन उसकी मूलभूत आवश्यकता से हम बहुत दूर हो गए हैं, शायद ! पुरुष और स्त्री की इस आपसी प्रतिस्पर्धा में हमने समाज को खो दिया है ! 
                                                                    ............... शक्ति शर्मा

युवाओं पर सामाजिक मीडिया का प्रभाव





मैं सामाजिक मीडिया हूँ.  कहते हैं, मेरा प्रादुर्भाव आधुनिक समय में हुआ है. लेकिन यह आंशिक सत्य है. मनुष्य के सामाजिक प्राणी के रूप में विकास के साथ ही  विभिन्न प्रारूपों में मेरा अस्तित्व एवं उसकी उपादेयता प्रासंगिक रही है. युवा मन का मैं हमेशा से आशिक रही हूँ. कभी सुदूर जंगलों से गुजरने वाले साहसी यात्री जब पत्थरों पर दुसरे यात्रियों के लिए पथ संकेत एवं चित्र लिपि का प्रयोग करते थे, तो वह मेरा ही एक रूप था.  “नैनं छिन्दन्ति शास्त्राणी, नैनं दहति पावक:” की तर्ज पर मैं , कठिन से कठिन सामाजिक एवं राजनितिक परिस्थितियों में  विभिन्न रूपों में अपना वजूद कायम रखते हुए, मानव  अभिव्यक्ति के “अहं ब्रह्मास्मि”  के दीप को तिरोहित करती रही. मैं महाविधालयों  के बेंचों पर अपनी उपस्थति दर्ज कराती  रही, जहाँ प्रत्येक वर्ष के छात्र कुछ चिहन्न और शब्द जोड़ते रहे. मैं सार्वजनिक पेशाबघरों एवं शौचालयों के महकती दीवारों पर, मानव मस्तिष्क के यौन कुंठाओं के उत्सर्जन का भी माध्यम बनी. जिसे अमूमन वार्षिक पवित्र स्नान अथार्त चूने  द्वारा शुद्धिकरण कर दिया जाता.
          मैं समय एवं तकनीक के साथ तेजी से बदली और ज्यादा संगठित हुई. हर बार की तरह मैं अपने नए रंग रूप मैं भी युवाओं की चेहती बनी रही.  कभी याहू चाट, ऑरकुट  से लेकर फेसबुक,  ट्विटर, एवं दुनिया भर के ब्लोगों के द्वारा दिन दुनी रात चौगुनी के रफ़्तार से मैं स्मार्ट फ़ोन के माध्यम से हर युवा के पॉकेट में जगह बनाने लगी.
         दूसरी तरफ जहाँ बड़े से बड़े परम्परागत मीडिया के माध्यम कभी व्यावसायिक मजबूरियों तो कभी राजनितिक आकाओं के दुराग्रह के दलदल  में फंसते चले  गये . मैं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नए आयामों का प्रतीक बनी.  युवा मन की सृजनात्मकता एवं रचनात्मकता अब  किसी छापेखाने के मालिक की अनुकम्पा का मोहताज न होकर  कभी फेसबुक की ‘स्टेटस’ होकर तो कभी ब्लॉग का लेख होकर वेबाभिव्यक्त  हो जाने लगी. . इस सामाजिक मीडिया का हर एक सदस्य एक पत्रकार है, जिसका मोबाइल फ़ोन उसका केमरा है, तो फेसबुक स्टेटस उसका सम्पादकीय चिंतन. तभी तो कभी  मैं ‘लीना बेन मेह्नी’ की ‘अ तुनिसियन गर्ल’ के ब्लॉग बनकर निरंकुश सत्ता को चुनौती देने लगती हूँ. मिस्त्र में ‘होस्नी मुबारक’ जैसे दिग्गज के खिलाफ  फेसबुक और  ट्विटर के माध्यम से इकठ्ठा होकर तहरीर चौक पर युवा  नया इतिहास रचते  हैं. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में तंत्र की ‘कुम्भकर्ण जड़ता’ के खिलाफ मेरे  माध्यम से संपर्क स्थापित  कर विशाल प्रदर्शन किया जाता है. यह मेरा ही कमाल है, की महामहिम के सुपुत्र को भी अब अपने गूढ़ चिंतन के परम निष्कर्ष का खंडन कुछ ही घंटो के बाद करना पड़ता है. ‘गुल मकई’  उर्फ़ ‘मलाला युसुफजई’ के संघर्ष की कहानी यदि पुरे विश्व में  एक उदारहण बन जाती है,  तो इसका काफी श्रेय मुझे  भी जाता है.  एक जुनूनी युवा ‘जुलियन असान्जे ‘ , स्थापित मीडिया के सारे मुहावरों को धता बताते हुए ‘विकिलीक्स’ के माध्यम से तथाकथित उदार लोकतन्त्रो के दोगलेपन को जगजाहिर करते हैं. मेरे  ही दुसरे रूप जैसे  ‘विकीपीडिया’ विश्वकवि रविन्द्र के “वेअर नोलेज इज फ्री ....” के दर्शन पर प्रयासरत हैं. यह मेरा ही कमाल है, की रातोंरात “ व्हाई दिस कोलावरी डी...” कश्मीर से कन्याकुमारी तक लोगों के जुबान पर छा जाता है. अब कोई चलचित्र, पुस्तक या संगीत के सफल होने के लिए आलोचना के शास्त्रीय मानकों पर खरा उतरने के बजाय मेरे अथार्त सामाजिक सम्पर्कसूत्रों के वेबसाईट पर ज्यादा ‘लाइक और सेअर’ प्राप्त करना पड़ता है. संपर्क के क्षेत्र में भी मेरी वजह से बड़ी हस्तियाँ अपने चाहने वालों से सीधे रुबरु हो सकते हैं , तो उन बड़ी हस्तियों को भी एक गुमनाम सा आलोचक सही सही, साफ़ साफ़ शब्दों में औकात बता सकता है.     
         मैंने वर्तमान के सिर्फ सामाजिक , राजनितिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में ही सिर्फ युवाओं की सकारात्मक सहभागिता को प्रोत्साहित नहीं किया है. बल्कि युवाओं के व्यक्तिगत जीवन पर भी उल्लेखनीय प्रभाव डाला है. शिक्षा एवं रोजगार के मारामारी के चलते अपने घर एवं सामाजिक परिवेश से दूर  युवा मन के लिए मैं एक माध्यम बनती हूँ , जहाँ वह अपने मधु-कटु प्रसंगों को दूसरों के साथ मिल बाँट सकते है. कहा जा सकता है,   की मैं एक छदम सामाजिक माध्यम हूँ, जहाँ सब कुछ आभासी है . खैर छोडिये भी इन बातों को जब महान दार्शनिक लोग वास्तविक दुनिया को ही ‘माया’ का एक रूप कह चुके हैं, तो मैं किस खेत की मुली ठहरी. लेकिन सच तो यह है , ऑफिस के उबाऊ क्षणों में, सफ़र के अकेलेपन, पढाई के बोरियत भरे पलों के बीच  में यदि स्टेटस , लाइक और शेयर के द्वारा युवा मन के सामाजिक जड़ो का पोषण करता रहूँ,  तो इसमें मेरी क्या खता. बदलती दुनिया के साथ सामाजिक संपर्क माध्यमो को भी बदलना होगा , २४ * ७ चलने वाली दुनिया में  ना तो अब गावं के चौपाल या पनघट हैं , ना ही वे काफीहॉउस में चिरकाल तक चलने वाली बुद्धिजीवियों की बहसें. तो फिर मेरे आभासी चौपाल और काफीहॉउस की सामजिकता में  चुस्की लगाकर युवामन थोडा राहत पाए , तो क्या गम है! सच तो यह है , बहुत सारे युवा, जो वास्तिवक जिंदगी में  अन्तर्मुखी एंड मृदुभासी बने रहते है , फेसबुकीय परिवेश में अपने आपको ज्यादा आसानी से अभिव्यक्त कर पाते है.
    हर सिक्के के दो पहलु है , मैं भी उससे अछूती  नहीं हूँ. कबीर के “माया दीपक नर पतंग , मनुष्य भरमें भरमें इव पढंत” की तर्ज पर यदि आप परीक्षा की सुनहरी घड़ियों मैं बार बार फेसबुक के स्टेटस के चक्कर में रहे तो , कहीं तो खता होगी ही ना. तो फिर कबीर के ही “ जैतो पाँव पसारिये , तैतों लम्बी सौढ” का अनुकरण करते हुए जितना समय मिले , उसी के अनुपात में  इस मीडिया से मुखातिब होइए. और फिर कहीं ऐसा भी तो ना हो जाये की आभासी सामाजिकता के चेम्पियन बने, फिरे आप कहीं वास्तिवक दुनिया के ‘एलियन’ ही ना बन जाएँ.  दूसरी समस्या यह है की, मैं अपने प्रयोग करने वालों के दिलोदिमाग पर ‘आत्ममुग्धता’  की काली छाया डाल देता हूँ . चंद मित्रों की मिली ‘लाइके’ यदि उत्र्प्रेरक के बजाय भस्मासुर बन जाये, तो आपकी  रचनात्मक ग्रन्थियां सबसे पहले प्रभावित होंगी . एक और समस्या है , ‘क्षणभंगुरता’  की. तमाम अच्छी रचनाएँ, विचार और उदगार मेरे ब्लोगों के भीड़-भाड में  सम्पादन एवं समीक्षा के अभाव  में कभी अच्छी से बेहतरीन नहीं हो पाती , और , कुछ ‘लाइक ‘ और ‘कमेंट’ के पश्चात सदा के लिए गुमनामी में खो जाती है.
फिलहाल, मैं इक्कसवीं सदी का सबसे बड़ा सच हूँ . अभिव्यक्ति के सही मायनों में स्वतंत्रता, सम्पर्क सूत्र , एवं बदलते दुनिया  के ताने बाने में हर युवामन की एक सामाजिक जरुरत की भूमिका में मेरी प्रासंगिकता बनी रहेगी. रही बात ,मेरे नकारात्मक प्रभावों की, तो किस खुबसूरत फूल में कांटे नहीं होते.

                                    ------------------    निशांत कुमार

मंगलवार, 12 मार्च 2013

ज़िन्दगी के पन्नों से ! -3

          
                         

                                                    एक फलसफा और एक दुआ !!                
                          
ज़िन्दगी कब क्या सिखा जाए पता नहीं ! ज़िन्दगी गम का सागर भी है ..हँस के उस पार जाना पड़ेगा ....पिछले कुछ  दिनों ' किशोरदा के इस गीत ने मानों मेरी ज़िन्दगी में अपनी रंगत सचमुच दिखानी शुरू की है ! कभी तो कुछ ऐसा हो जाता है कि मैं अचानक बेहद खुश महसूस  करने लगती हूँ तो कुछ लम्हे मायूस कर जाते हैं .शायद इसे ही ज़िन्दगी कहते हैं !जहां उपलब्धियां ,अपने दिल की मर्ज़ी का काम करने पर मिलने वाली ख़ुशी ...आह्लादित करती है वहीँ कभी कभी पता नही सब कुछ दुखी करता है ....पर हम अपने से जुड़े हर इंसान को अपनी खुशियों और गम में शामिल करते हैं . उनकी सलामती की दुआ करते हैं .उनकी समस्याओं को साझा भी करते हैं और उनके साथ  भी अपनी समस्याओं को साझा करते हैं .हमारी ज़िन्दगी  में 'अपनों' की अहमियत सबसे बढ़कर है।अगर हम आगे बढ़ते हैं तो ये वही होते हैं जो जो शाबाशी देते हैं सबसे पहले ...और गिरते हैं या दिशा भटकते हैं तो भी ये ही हमें प्रेरणा देते हैं .इसीलिए मुझे सबसे ज्यादा अगर किसी चीज़ का डर होता है तो वह है अपनों को खोने का ! यही वजह है कि जागृत या सुप्त अवस्था दोनों में ही मैं अपने शुभचिंतकों ,मित्रों और परिवार के स्नेह की भागीदार हमेशा बनी रहना चाहती हूँ . क्यूंकि आपके 'अपनों' से अधिक इस दुनिया में शायद कोई आपके बारे में सोचेगा ....पर जब अचानक आपको पता चले कि उन्ही में से एक तकलीफ में है ....तो चिंता करना स्वाभाविक है !  ज़िन्दगी सचमुच हर पल एक इम्तिहान है ,अब ईश्वर या प्रकृति ने आपके लिए क्या सोचकर रखा है आप नही जानते .उसके हर इम्तेहान में दरअसल आपको और भी मज़बूत बनाने का रहस्य छुपा होता है ....पर जो भी हो हम खासकर  ऐसे हालातों में थोड़ी देर के लिए विचलित हो उठते हैं ....पर ज़िन्दगी इन सबसे आगे बढ़कर जीने का नाम है ....मेरी माँ की जब दिसंबर २०११  में सर्जरी हुई थी ....मैं हर पल उनकी कुशलता के समाचार के इंतज़ार में रहती थी ....और पहली बार मुझे उन्हें खोने का डर लगा जो हो सकता है अब हास्यास्पद लगता हो ,आज ही भीषण गर्मी और कार्य की अधिकता के कारण पापा बोले थोडा बीमार हूँ तो थोडा चिंता हुई ! पता नही मुझे हमेशा से हॉस्पिटल ,मौत या फिर किसी के जाने के बाद के खालीपन से डर लगता है ...जानती हूँ छोटी मोटी बीमारियाँ तो ज़िन्दगी में होती रहती हैं .लोग तो बड़ी बड़ी बीमारियों से जंग  लड़ आते हैं लेकिन  सिर्फ यही सुनकर कि कोई बीमार है ....भले ही वह औपचारिक मित्र भी हो तो चिंता का एक ख्याल ज़ेहन में आता ही है. माना आजकल यह सब दूसरों के बारे में ज़ज्बाती होना सही नही है .पर हमसे जुड़ा कोई भी हो ....चाहे हमने उससे एक ही बार बात की हो तो भी उसकी कमी और बातें याद आती ही हैं हालाँकि मैं खुशनसीब हूँ कि मुझे भगवान् ने इतने प्यारे लोगों के सुरक्षा और स्नेह के घेरे में रख रखा है पर दुआ करती हूँ जिनके पास अपने नही हों उन्हें मैं भी अपनापन दे पाऊँ क्यूंकि कुछ रिश्ते खून के न होते हुए भी स्नेह और सहयोग के लिए हमेशा तैयार रहते हैं .

तो इस विचार-मंथन से जो बात निकल कर सामने आई कि ये सब ज़िन्दगी का ही हिस्सा है -किसी के भी साथ हो सकता है. ..तो शान्ति से झेलकर उससे बाहर निकल आयें ! और आगे बढें .जब तक साँसे हैं ....इस के इन इम्तिहानों को तो चाहे मजबूरी में चाहे हँसकर पार करना ही है !!

 -स्पर्श चौधरी "

सोमवार, 11 मार्च 2013

ज़िन्दगी के पन्नों से! - 2

कभी कभी मैं सोचती हूँ, कि लोग हमको खुश करने के लिए दो standard बातें बोलते हैं:
first, कि जो होता है, अच्छे के लिए होता है.
second, कि ending तक सब ठीक हो जायेगा.

ऐसा नहीं होता है! ये सब बस कहने की बातें हैं. दूसरों को बहलाना हमेशा आसान होता है, जब खुद की band बजती है, तो ये बातें समझ नहीं आतीं. और ऐसा कहने का क्या logic है कि ending तक सब ठीक हो जायेगा?? कितनी सारी movies होती हैं, जिनकी ending बुरी होती है, और खाली movies ही नहीं, real life में भी कितने सारे लोगों की stories sad होती हैं! कोई हार जाता है, या किसी का बुरा वाला कटता है, तो भी सब आकर उसको यही बोलते हैं कि tension न ले, सब ठीक हो जायेगा! उनको कैसे पता है कि सब ठीक हो जायेगा?? future देख कर तो नहीं बैठे होते न ये लोग!!


ज़िन्दगी के पन्नों से !

         

# ऐसा क्यूँ होता है कि हम जिस चश्मे से देखते हैं हमको सभी वैसे ही दिखाई देते हैं और अगर ऐसा कोई हो भी जो  बिलकुल वैसा न हो तब भी सिर्फ आँखों पर पड़े चश्मे में  वह जैसा दिखेगा हम उसी पर विश्वास करते हैं !! और फिर गलतफहमियाँ   उठती हैं दो लोगों के दरमियान !!   

# मैं यह जानती हूँ कि आजकल के प्रैक्टिकल ज़माने में सब अपने में मगन रहते हैं -काम से काम रखते हैं -पर उन लोगों का क्या -जिन्हें आजकल के वक़्त में बेवकूफ कहा जाता है- क्यूंकि जिनके लिए अगर उनके दिल में थोड़ी सी भी केयर होती है तो उनसे जुडी छोटी सी परेशानी उन्हें भी प्रभावित करती है कहीं न कहीं ....चाहे सामने वाला उन्हें अपना शुभचिंतक मानता हो या दुश्मन या सतही दोस्त ! पर उन्हें लगता है कि दूसरों की चिंता को अपनी चिंता का हिस्सा बनाने की क्या ज़रुरत है किसी को -पर हम उन्हें कभी सराहते नही बल्कि उन्हें अपराध -बोध से ग्रसित कर देते हैं -खैर भावनाओं में बहने का वक़्त कहाँ है हमारे पास! सुम-वेदना -तो दूर की बात है ...वैसे क्या कभी कभी लगता नही आपको कि निःस्वार्थ रूप से 'सब' के बारे में सोचना फ़िज़ूल है आजकल क्यूंकि क्या मालूम आपकी मदद का स्वागत तो दूर आप ही को लोग गलत समझ बैठें -अरे क्या पड़ी है किसी को किसी के फटे में पाँव डालने की भला ! अरे अपने काम से काम रखो न साहब !! और वैसे भी ज्यादा व्यक्तिगत बातें सिर्फ घनिष्ठ -तम मित्रों के साथ साझा होती हैं अक्सर !

   इसीलिए मेरे प्यारे फेसबुक मित्रों माफ़ कीजियेगा आप में से कुछ चुनिन्दा ही हैं जो मेरे नज़दीक हैं सचमुच !!   तो जनाब आप भी फेसबुक से परे ऐसे ही घनिष्ठ मित्रों को पहचानिए और बस उन्ही के साथ दिल खोल के बातें कीजिये क्यूंकि वे ही हैं जो आपको शायद जज नहीं करेंगे वरना तो कहीं आपकी भलमनसाहत उन्हें रास नही आये ! वह क्या है न आजकल सलाह ही ऐसी चीज़ है जो मुफ्त में अगर मिलती है तो लोग उसे संदेह की दृष्टि से देखते हैं -लोग हैरान हो जाते हैं -आदत नही रही न अब ...किया भी क्या जा सकता है -हम जैसे अधिकांश लोगों को देखते हैं उसी तराजू पर सभी को तौलते हैं !!!
"

शुक्रवार, 8 मार्च 2013

नारीत्व



अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर आप सभी को शुभकामनायें !! क्यूंकि हम सभी का जीवन औरत रुपी धुरी के इर्द -गिर्द घूमता है ! पर ' हम'  में से कुछ अहंकारी लोग  नही इसे स्वीकारना चाहते ! कोई बात नही ! हाल ही की तीन मुख्य घटनाओं ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया -अमेरिका द्वारा निर्भया समेत दस अन्य बहादुर महिलाओं को 'वीमेन ऑफ़  करेज ' के अवार्ड देने की घोषणा की ; महाराष्ट्र में हाल ही में हुए दर्दनाक घटनाक्रम में तीन बच्चियों की सामूहिक बलात्कार के बाद नृशंस हत्या और दिल्ली के एक सरकारी ' शिक्षा के मंदिर  ' विद्यालय में ७ साल की बच्ची के साथ दुष्कर्म ! .....बाद की दो घटनाओं का रूप एक ही है महिला के प्रति अपराध !!  सरकार  और  क़ानून  तो  बीमार कछुए की चाल से काम करते रहेंगे -भले ही मुझे इस बात पर क्षोभ हुआ हो कि क्यूँ भारत सरकार ने कभी देश में ऐसे कोई सम्मान क्यूँ नही दिए -जो औरत के जिजीविषा को सलाम करते हों -पर .... हमने कब अपने घरों को सुधारने  के बारे में सोचा है ?  

सरस्वती ,काली और लक्ष्मी तीनों के रूप में आज स्त्री हर क्षेत्र में आसमान की ऊँचाईयाँ नाप रही हैं .मलाला युसुफजई -मात्र १४ साल की बच्ची जो पाकिस्तान में लड़कियों की शिक्षा के लिए निरंतर लड़ाई लड़ रही थी जो तालिबानियों को सहन नही हुई ....पर उसकी हिम्मत देखिये वो आज फिर से अपने संघर्ष के लिए उठ खड़ी हुई है तो इरोम शर्मीला जो 1२ साल से शांतिपूर्ण तरीके से आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट के उल्लंघन का विरोध कर रही हैं -जुदा बात है कि हमारी सिरफिरी सरकार ने उन्ही पर आत्महत्या के प्रयास का मुक़दमा ठोक दिया है !! पर उनकी इसी हिम्मत के कारण उन्हें लोगों ने 'आयरन लेडी' की उपाधि दे दी है .कुछ दिनों पहले ही अखबार में एक पृष्ठ ऐसी ही आज की नारी के नाम पर था। जहाँ हरियाणा की एक खाप ने औरतों की सुरक्षा के नाम पर उनके  पुरुष के बिना निकलने पर रोक लगा दी वहीँ मुंबई की एक विशेष सुरक्षा एजेंसी की सुरक्षा गार्ड की भूमिका महिलाएं बखूबी निभाती हैं जिनसे पुरुष भी डरते हैं .तो मुंबई की लोकल की एकमात्र ' मोटर वुमन ' से लेकर भारत -चीन की सीमा पर बैठी इकलौती महिला आर्मी ऑफिसर जो अपनी इनफ़ोसिस की जॉब ठुकराकर वहां गयी हैं ....महिला शेफों ,मुंबई की ही महिला टैक्सी ड्राइवर्स के यूनियन तक का ज़िक्र था .ये तो शुरुआत है .कहते हैं जब किसी को जितना दबाया जाता है ,शोषित किया जाता है ....उसका गुबार और आक्रोश और बाहर आता है और आज की एक औरत ने तो हर उस जगह जाने की सोच रखी है जो पुरुष के वर्चस्व के क्षेत्र हुआ करते . 
                   निर्भया के हौसले ने जहाँ औरतों के आवाज़ उठाने के हौसले को और बढाया है तो .आज शहीद पुलिस अधिकारी की पत्नी समाजवादी पार्टी के गुंडे मंत्री के खिलाफ आवाज़ उठाने से पीछे नही हट रही है. हाँ इन अपराधों से थोड़ी देर के लिए तकलीफ ज़रूर होती है जब हम अपनी ही बच्चियों ,मासूम कलियों को निर्ममता से कुचलते हुए देखते हैं ....पर न्याय पाने के रास्ते में आने वाली हर मुश्किल का सामना करने को अब तैयार दिखाई देती हैं आज की नारियाँ ! ये मिसालें हमें अपने हकों के लिए लड़ने को हिम्मत दे रही हैं .आज फिर कहीं मैंने पढ़ा कि  देश के ४९ लाख एक-सदस्यी परिवारों की मुखिया महिला है जिनमे तीन चौथाई ग्रामीण इलाकों की हैं ;पढ़कर थोडा अच्छा लगा .पर सच्चाई तो कडवी है .अब सरकारें तो आनी जानी हैं उनकी उम्मीद के सहारे अपने दामन पर लगे खून और आँखों के आंसुओं को पड़े पड़े खुद ही सूखने देने से बेहतर है -आंसुओं को पोंछकर अपने और अपनी बच्चियों के अरमानों और आत्मा के बलात्कार का बदला खुद लेना सीखें .खुद को शारीरिक रूप से और मानसिक रूप से सशक्त बनाएं .मेरी मानिए तो मानसिक मजबूती सबसे बढ़कर है. ऐसे कु -पुरुष  उनके खौफ के आगे मिमियाने वाली महिलाओं को शिकार सबसे ज्यादा बनाते हैं . क्यूंकि कोई भाई,बॉयफ्रेंड ,पति,मित्र आपकी रक्षा नही कर सकता हमेशा ! सरकार तो राजनीति की गोटियाँ खेलने में बड़ी मसरूफ रहती है वैसे भी -निर्भय के नाम से फण्ड तो दे दिया बजट में देखते हैं .-उसी निर्भया और देश की सभी निर्भयाओं  को वास्तव में कितना लाभ /इन्साफ का फायदा मिलता है !! 

मैं काफी दिनों से एक बात सोच रही थी कि बॉलीवुड में नायिका प्रधान फिल्में अभी भी क्यूँ गिनी चुनी हैं और क्यूँ उसे करने के लिए सभी अभिनेत्रियाँ आगे नही आतीं ! क्यूँ एक कहानी या एक डर्टी पिक्चर और हो सकता है मेरे मस्तिष्क में फिलहाल और नाम अभी ना आ रहे हों पर कम ही हैं जो ऐसी सफल हुई जबकि ऐसी कई दबंग और सिंघम कई  उत्तर-कथाओं में आती रहेंगी जिसमें 'हीरो ' ढेर सारा एक्शन करके जनता को  आकर्षित करते रहेंगे ....अभी भी बॉलीवुड में क्यूँ हीरोइन को बस 'प्रेमिका' के ही रूप में देखना पसंद करते हैं लोग या फिर बात ऐसी है कि फिल्म उद्योग वाले  थाली में जनता को जो  परोसते हैं वे उसे धीरे धीरे पसंद करते हैं .तो क्यूँ न बदलाव लाया जाए -शुरुआत थिएटर और छोटे नाटकों के स्तर से किया जाए जहाँ औरत को सिर्फ 'आइटम गर्ल' के तौर पर मसाला जोड़ने के लिए नही ,'नए सशक्त ' चरित्रों के दम पर पहचाना जाए ! हाल ही में बढ़ते महिला -अपराधों के मद्देनज़र सेंसर बोर्ड ने कड़ी आपत्ति दर्ज की ऐसे 'आइटम डांस ' को लेकर जो जायज़ भी है. आप ही बताइए इंसान जो जन्म से प्रयोग करने में बेहद उत्साहित रहता है को जो फिल्मों में ऐसे ही एक लड़की को अश्लील तरीके से नाचते और लड़कों को असभ्य हरक़तें करता हुआ देखता है तो थिएटर से निकलने के बाद उसे प्रयोग करना ज़रूर चाहेगा !! अरे भाई ! भारत वैसे ही नृत्य और संगीत के खूबसूरत रंगों से रंगा हुआ सजीला देश है -उसके इन रंगों से  मनोरंजन के लिए उसे अपनी   सीमा नही लांघने की कोई ज़रुरत नही !
           .एक लड़की होने के नाते मैं आज़ादी के पूरी तरह समर्थन में हूँ पर अगर कला स्वतंत्रता की जगह स्वच्छंदता सिखाये और सामाजिक प्राणी होने के नाते अपने फर्जों को भुला दे तो फिर वह कला सर्वथा रास्ता भूल गयी है . इन आइटम गीतों के खिलाफ मोर्चा लेकर खड़ा होना मेरा उद्देश्य नही है मेरा पर इनसे औरत को उपभोगी वस्तु के  तौर पर देखने का नजरिया बेशक बढ़ता ही है .क्यूँ एक भी चैनल देश के गाँव और औरत  को केंद्र में लाकर खबरें नहीं  लाता जबकि 'लेक्मे फैशन शो' ( सिर्फ एक उदाहरण है यह तो :) )की कवरेज तो निहायत ज़रूरी होती है .!! .ऐसे फैशन शो जो फैशन के नाम पर स्त्री को वस्तु की तरह देखने पर मजबूर करें उनकी कोई ज़रुरत नही है इस पहले से ही बेहद गंभीर समस्याओं से जूझते हमारे समाज को ....विडंबना है न कहीं  किसी स्त्री के पास अपने महीने के उन तकलीफदेह दिनों में भी तन ढंकने को वस्त्र कम हैं और कहीं हैं तो ये फैशन का प्रपंच !!  

औरत के हर रूप -एक बच्ची ,बहन ,माँ ,पत्नी , प्रेमिका ,भाभी ,मित्र -हर रिश्ते को देने के लिए उसके पास ढेर सारा प्यार और स्नेह छुपा होता है . जो भी रिश्ता निभाती है दिल से निभाती है .पर उसके इस नाज़ुक दिल को ,आत्मा को कमज़ोर मान छलनी करने का नापाक  काम करते हैं वही प्रेम को पाने वाले भी -घर से लेकर स्त्री कार्यस्थल हर जगह अपनों से ही धोखा खाती है . आज भी एक बार चर्चा छिड़ी थी की - एक सी आय वाले पति पत्नी में से पहले कौन नौकरी छोड़ेगा -अगर ज़रूरत पड़ी तो जायज है औरत ही करती हैं अक्सर ये त्याग जो आजकल शायद उतना सही नही है .तो बात उसके दोनों -घर और बाहर के मोर्चे को बखूबी संभालने की है -जो वो करती भी है .पर आप उसकी काबिलियत पर विश्वास कीजिये ....बिलकुल निराश नही होंगे बल्कि बेहद गर्व होगा आपको उसपर ! 

औरत के सभी रूप गंभीर नही होते -उसके अन्दर छुपे छोटे शिशु को दरअसल बचपन से ही दबा दिया जाता है कि दूसरे  के घर जाना है ....तहजीब सीखो -पर उसका खिलखिलाना ,उसकी मासूमियत ,जिंदादिली ,ज़िन्दगी के हर छोटे बड़े लम्हे को खुलके जीने का ज़ज्बा ,बारिश और फूलों की भीनी खुशबुओं से प्यार ,इठलाना ,शर्माना , रूठना ,मनाना , खुल कर मोहब्बत करने का ज़ज्बा , घुंघरुओं की खनखनाहट ,पायल की छनछन ,चूड़ियों की खनखन सब उसे और भी ख़ास बना देते हैं . रंगों की तो कबकी ज़िन्दगी से वापसी हो गयी होती अगर ज़िन्दगी में औरत नही होतीं ...उसकी छोडिये ..माँ नही होती तो ज़िन्दगी ही कहाँ होती जनाब !! 

तो इस महिला दिवस पर मजदूर से लेकर प्रशासन की  बागडोर संभालती ,नवजात कन्या शिशु जिसे इस दुनिया में औरत होने के नाते बेहद संघर्षशील जीवन जीना है ,नौकरीपेशा से लेकर घर का मोर्चा संभालती ,बिज़नेस से लेकर पुलिस ,अंतरिक्ष से लेकर एवरेस्ट , किचन से लेकर बॉक्सिंग ,लेखन से लेकर तीरंदाजी  में  उड़ान भर रही हर महिला को सलाम !! और अगर जो सिर्फ महिला हैं -आम तो और भी काबिले तारीफ़ हैं अधिक मुश्किलें उनका रास्ता रोकती हैं पर वे लडती हैं -क्यूंकि हर महिला ख़ास है क्यूंकि वो जन्मती है -रिश्तों को ,विश्वास को,ज़ज्बात को ,मूल्यों को , बुद्धि को, समाज को ,विचारों को और इस गढ़ती है इस प्यारे संसार को !! 

संपूर्ण नारीत्व को प्रणाम !! :) :) 
                                                              -------------- स्पर्श चौधरी 

महिला दिवस!?!


   
आज महिला दिवस है, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाता है। सबसे पहले तो मन में ये सवाल उठा कि महिला दिवस है, पर पुरुष दिवस तो कभी होता नहीं, फिर एहसास हुआ कि  पुरुषों के लिए दिवस की ज़रूरत क्यों पड़ने लगी? सारे दिवस तो पुरुषों के नाम ही होते हैं वैसे भी। भारत की बात करें,  तो हमारे देश के कुछ इलाके ऐसे भी हैं जहाँ महिलाओं को उनके हिस्से की ख़ुशी नहीं मिलती, जहाँ बच्चियों को पैदा होने का भी हक नहीं होता, जहाँ औरतों की दुनिया चार दीवारों में ही सिमट कर रह जाती है।  

हाँ तस्वीर बदरंग तो है , पर मुझे उम्मीद है कि एक दिन ऐसी महिलाओं के दिन भी फिरेंगे। तब तक, उनकी हालत बयान करती एक कविता : 

                                                                  वो कहाँ जानती है  
                                                                  महिला दिवस क्या होता है 
                                                                  उसके लिए तो 
                                                                   रोटियों कि गोलाई ही 
                                                                   उसकी सफलता का पैमाना है।
                                                                    
                                                                    उड़ने के ख्वाब तो 
                                                                    देखे होंगे उसने भी                                  
                                                                    उसके पर कुतरने वालों को
                                                                    कहाँ उनका अंदाज़ा है।

                                                                      एक अधूरी कहानी है वो
                                                                      छीन कर उसके हाथ से 
                                                                      उसकी कलम, औरों ने 
                                                                      लिखा उसका फ़साना है।