बुधवार, 16 अक्तूबर 2013

धर्म और उसके मायने ?

                                हिन्दू हो ,मुस्लिम हो या क्रिस्चियन या कोई और .....धर्म सब एक जैसे हैं मेरे लिए और सभी का मूल उद्देश्य भी एक ही होता है पर क्यूँ ऐसा है कि हम उस धर्म के पीछे ,उसके रिवाजों के पीछे की भावनाओं को तो भूल जाते हैं पर उन रिवाजों को बड़े अच्छे से फॉलो करते हैं ! क्या परंपरा को विवेक और ह्रदय के तराजू पर तौलकर हम ये खुशियाँ नही मना सकते ....क्या सिर्फ 'ऐसा तो होता ही है ' की वजह से ही हम अपने दिलो दिमाग को ठन्डे बस्ते में डालकर करेंगे ?; शायद -शायद कभी तो पढ़े लिखे और समझदार मानुस (भावना छोडिये आप लॉजिक की बात कीजिये ) उस पर प्रश्नचिन्ह लगाते होंगे ! 

मुझे पता है कि ये विवाद का मुद्दा है पर मैं पढ़े लिखे ,समझदार दोस्तों की बात कर रही हूँ ,हर धर्म के ,हर मज़हब के !

क्या कभी आपने ये सवाल नही उठाया कि माँ आप के करवाचौथ करने से सचमुच पापा की उम्र बढ़ जाएगी और अगर आप ये व्रत की बजाय सचमुच उनकी सेहत के लिए कोई उपाय करें तो कैसा रहेगा ? या घनघोर पूजा पाठ से जीवन सुखमय बनता है या अच्छे से ,मेहनत से काम करके छोटी सी प्रार्थना करके भी इंसान खुश रह सकता है ,हमारे यहाँ हिन्दू धर्म में भी काफी समय पहले तक देवी को प्रसन्न करने के लिए बलि चढ़ाई जाती थी ....माँ असुरों के नरमुंड से प्रसन्न होती थीं शायद इसलिए क्यूंकि वे विनाशकारी और बुरे थे पर ये मासूम बच्चों,बच्चियों और पशुओं की बात कहाँ से आई ....नही पता ! ईद पर होने वाली बलियों की जहाँ तक मुझे जानकारी है ,उसका लॉजिक भी आजतक नही समझा मुझे .....मतलब जान लेने पर जश्न या जान लेकर मनाया जाने वाला जश्न .....हर एक धर्म के अपने नकारात्मक पक्ष हैं ....हम हिन्दु भी कम नही हैं ...ढकोसले निभाने के मामले में .....दूसरों को क्या कहें ....ये बताओ हम सबके घरों में कुछ न कुछ ऐसा ही परंपरा के नाम पर फॉलो होता है पर उसके पीछे का कारण जाने की कोशिश कब की हमने ? और की तो क्या उस कारण के साथ साथ वो रिवाज़ को कायम रखने का तरीका बदलना चाहिए वक़्त के साथ ?

# इतने त्यौहार आते हैं न इस देश में ....कि समझ नही आता कि हम भारत वाले काम कैसे और कब कर लेते हैं ! एकता में अनेकता ,विविध रंग भारत के वगैरह वगैरह सब सही है पर क्या उस एसेंस को कायम रख पाए हैं हम ?


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