शनिवार, 16 मार्च 2013

युवाओं पर सामाजिक मीडिया का प्रभाव





मैं सामाजिक मीडिया हूँ.  कहते हैं, मेरा प्रादुर्भाव आधुनिक समय में हुआ है. लेकिन यह आंशिक सत्य है. मनुष्य के सामाजिक प्राणी के रूप में विकास के साथ ही  विभिन्न प्रारूपों में मेरा अस्तित्व एवं उसकी उपादेयता प्रासंगिक रही है. युवा मन का मैं हमेशा से आशिक रही हूँ. कभी सुदूर जंगलों से गुजरने वाले साहसी यात्री जब पत्थरों पर दुसरे यात्रियों के लिए पथ संकेत एवं चित्र लिपि का प्रयोग करते थे, तो वह मेरा ही एक रूप था.  “नैनं छिन्दन्ति शास्त्राणी, नैनं दहति पावक:” की तर्ज पर मैं , कठिन से कठिन सामाजिक एवं राजनितिक परिस्थितियों में  विभिन्न रूपों में अपना वजूद कायम रखते हुए, मानव  अभिव्यक्ति के “अहं ब्रह्मास्मि”  के दीप को तिरोहित करती रही. मैं महाविधालयों  के बेंचों पर अपनी उपस्थति दर्ज कराती  रही, जहाँ प्रत्येक वर्ष के छात्र कुछ चिहन्न और शब्द जोड़ते रहे. मैं सार्वजनिक पेशाबघरों एवं शौचालयों के महकती दीवारों पर, मानव मस्तिष्क के यौन कुंठाओं के उत्सर्जन का भी माध्यम बनी. जिसे अमूमन वार्षिक पवित्र स्नान अथार्त चूने  द्वारा शुद्धिकरण कर दिया जाता.
          मैं समय एवं तकनीक के साथ तेजी से बदली और ज्यादा संगठित हुई. हर बार की तरह मैं अपने नए रंग रूप मैं भी युवाओं की चेहती बनी रही.  कभी याहू चाट, ऑरकुट  से लेकर फेसबुक,  ट्विटर, एवं दुनिया भर के ब्लोगों के द्वारा दिन दुनी रात चौगुनी के रफ़्तार से मैं स्मार्ट फ़ोन के माध्यम से हर युवा के पॉकेट में जगह बनाने लगी.
         दूसरी तरफ जहाँ बड़े से बड़े परम्परागत मीडिया के माध्यम कभी व्यावसायिक मजबूरियों तो कभी राजनितिक आकाओं के दुराग्रह के दलदल  में फंसते चले  गये . मैं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नए आयामों का प्रतीक बनी.  युवा मन की सृजनात्मकता एवं रचनात्मकता अब  किसी छापेखाने के मालिक की अनुकम्पा का मोहताज न होकर  कभी फेसबुक की ‘स्टेटस’ होकर तो कभी ब्लॉग का लेख होकर वेबाभिव्यक्त  हो जाने लगी. . इस सामाजिक मीडिया का हर एक सदस्य एक पत्रकार है, जिसका मोबाइल फ़ोन उसका केमरा है, तो फेसबुक स्टेटस उसका सम्पादकीय चिंतन. तभी तो कभी  मैं ‘लीना बेन मेह्नी’ की ‘अ तुनिसियन गर्ल’ के ब्लॉग बनकर निरंकुश सत्ता को चुनौती देने लगती हूँ. मिस्त्र में ‘होस्नी मुबारक’ जैसे दिग्गज के खिलाफ  फेसबुक और  ट्विटर के माध्यम से इकठ्ठा होकर तहरीर चौक पर युवा  नया इतिहास रचते  हैं. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में तंत्र की ‘कुम्भकर्ण जड़ता’ के खिलाफ मेरे  माध्यम से संपर्क स्थापित  कर विशाल प्रदर्शन किया जाता है. यह मेरा ही कमाल है, की महामहिम के सुपुत्र को भी अब अपने गूढ़ चिंतन के परम निष्कर्ष का खंडन कुछ ही घंटो के बाद करना पड़ता है. ‘गुल मकई’  उर्फ़ ‘मलाला युसुफजई’ के संघर्ष की कहानी यदि पुरे विश्व में  एक उदारहण बन जाती है,  तो इसका काफी श्रेय मुझे  भी जाता है.  एक जुनूनी युवा ‘जुलियन असान्जे ‘ , स्थापित मीडिया के सारे मुहावरों को धता बताते हुए ‘विकिलीक्स’ के माध्यम से तथाकथित उदार लोकतन्त्रो के दोगलेपन को जगजाहिर करते हैं. मेरे  ही दुसरे रूप जैसे  ‘विकीपीडिया’ विश्वकवि रविन्द्र के “वेअर नोलेज इज फ्री ....” के दर्शन पर प्रयासरत हैं. यह मेरा ही कमाल है, की रातोंरात “ व्हाई दिस कोलावरी डी...” कश्मीर से कन्याकुमारी तक लोगों के जुबान पर छा जाता है. अब कोई चलचित्र, पुस्तक या संगीत के सफल होने के लिए आलोचना के शास्त्रीय मानकों पर खरा उतरने के बजाय मेरे अथार्त सामाजिक सम्पर्कसूत्रों के वेबसाईट पर ज्यादा ‘लाइक और सेअर’ प्राप्त करना पड़ता है. संपर्क के क्षेत्र में भी मेरी वजह से बड़ी हस्तियाँ अपने चाहने वालों से सीधे रुबरु हो सकते हैं , तो उन बड़ी हस्तियों को भी एक गुमनाम सा आलोचक सही सही, साफ़ साफ़ शब्दों में औकात बता सकता है.     
         मैंने वर्तमान के सिर्फ सामाजिक , राजनितिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में ही सिर्फ युवाओं की सकारात्मक सहभागिता को प्रोत्साहित नहीं किया है. बल्कि युवाओं के व्यक्तिगत जीवन पर भी उल्लेखनीय प्रभाव डाला है. शिक्षा एवं रोजगार के मारामारी के चलते अपने घर एवं सामाजिक परिवेश से दूर  युवा मन के लिए मैं एक माध्यम बनती हूँ , जहाँ वह अपने मधु-कटु प्रसंगों को दूसरों के साथ मिल बाँट सकते है. कहा जा सकता है,   की मैं एक छदम सामाजिक माध्यम हूँ, जहाँ सब कुछ आभासी है . खैर छोडिये भी इन बातों को जब महान दार्शनिक लोग वास्तविक दुनिया को ही ‘माया’ का एक रूप कह चुके हैं, तो मैं किस खेत की मुली ठहरी. लेकिन सच तो यह है , ऑफिस के उबाऊ क्षणों में, सफ़र के अकेलेपन, पढाई के बोरियत भरे पलों के बीच  में यदि स्टेटस , लाइक और शेयर के द्वारा युवा मन के सामाजिक जड़ो का पोषण करता रहूँ,  तो इसमें मेरी क्या खता. बदलती दुनिया के साथ सामाजिक संपर्क माध्यमो को भी बदलना होगा , २४ * ७ चलने वाली दुनिया में  ना तो अब गावं के चौपाल या पनघट हैं , ना ही वे काफीहॉउस में चिरकाल तक चलने वाली बुद्धिजीवियों की बहसें. तो फिर मेरे आभासी चौपाल और काफीहॉउस की सामजिकता में  चुस्की लगाकर युवामन थोडा राहत पाए , तो क्या गम है! सच तो यह है , बहुत सारे युवा, जो वास्तिवक जिंदगी में  अन्तर्मुखी एंड मृदुभासी बने रहते है , फेसबुकीय परिवेश में अपने आपको ज्यादा आसानी से अभिव्यक्त कर पाते है.
    हर सिक्के के दो पहलु है , मैं भी उससे अछूती  नहीं हूँ. कबीर के “माया दीपक नर पतंग , मनुष्य भरमें भरमें इव पढंत” की तर्ज पर यदि आप परीक्षा की सुनहरी घड़ियों मैं बार बार फेसबुक के स्टेटस के चक्कर में रहे तो , कहीं तो खता होगी ही ना. तो फिर कबीर के ही “ जैतो पाँव पसारिये , तैतों लम्बी सौढ” का अनुकरण करते हुए जितना समय मिले , उसी के अनुपात में  इस मीडिया से मुखातिब होइए. और फिर कहीं ऐसा भी तो ना हो जाये की आभासी सामाजिकता के चेम्पियन बने, फिरे आप कहीं वास्तिवक दुनिया के ‘एलियन’ ही ना बन जाएँ.  दूसरी समस्या यह है की, मैं अपने प्रयोग करने वालों के दिलोदिमाग पर ‘आत्ममुग्धता’  की काली छाया डाल देता हूँ . चंद मित्रों की मिली ‘लाइके’ यदि उत्र्प्रेरक के बजाय भस्मासुर बन जाये, तो आपकी  रचनात्मक ग्रन्थियां सबसे पहले प्रभावित होंगी . एक और समस्या है , ‘क्षणभंगुरता’  की. तमाम अच्छी रचनाएँ, विचार और उदगार मेरे ब्लोगों के भीड़-भाड में  सम्पादन एवं समीक्षा के अभाव  में कभी अच्छी से बेहतरीन नहीं हो पाती , और , कुछ ‘लाइक ‘ और ‘कमेंट’ के पश्चात सदा के लिए गुमनामी में खो जाती है.
फिलहाल, मैं इक्कसवीं सदी का सबसे बड़ा सच हूँ . अभिव्यक्ति के सही मायनों में स्वतंत्रता, सम्पर्क सूत्र , एवं बदलते दुनिया  के ताने बाने में हर युवामन की एक सामाजिक जरुरत की भूमिका में मेरी प्रासंगिकता बनी रहेगी. रही बात ,मेरे नकारात्मक प्रभावों की, तो किस खुबसूरत फूल में कांटे नहीं होते.

                                    ------------------    निशांत कुमार

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