बुधवार, 12 दिसंबर 2012

यायावरी - दिल्ली

ये दिल्ली है मेरे यार...बस इश्क मुहब्बत प्यार!
   पता नहीं क्यूँ, इस शहर में कुछ आकर्षण सा लगता है. शायद ऐतिहासिक घटनाओं का केंद्र होने की वजह से, भारत की राजधानी होने की वजह से, फिल्मों की वजह से, शाह-रुख की वजह से, यहाँ की मेट्रो की वजह से या हजारे आन्दोलन की वजह से इस शहर की कुछ अलग ही छवि है मानसपटल पर. खैर, बचपन में एक बार यहाँ आया था, लेकिन ऑटो वालों की बदतमीजी, न्यू डेल्ही स्टेशन के बहार लटकते बिजली के तारों और मेट्रो के अलावा कुछ ख़ास याद न था.
                                      पहली मुलाकात के करीब ६ साल बाद फिर से मोहतरमा से मिलने का मौका मिला -  और दिलो-दिमाग में फिर से दिल्ली  की वही "रहस्यमयी छवि" घूमने लगी. मुंबई से सुबह ८ बजे बैठे मेरे तीन मित्र और मैं. अगले दिन सुबह ५ बजे हम दिल्ली में थे, अक्टूबर की हलकी गुलाबी ठण्ड में चाय की चुस्की लेते हुई बतिया रहे. इस बार दिल्ली थोड़ी अलग नज़र आई. नया नया रेलवे स्टेशन, जिसपर काम ज़ारी था. पहले वाले तार गायब थे. चाय ख़त्म कर हम बढ़ चले अपनी "मंजिल" की ओर.रास्ते में एक बस मिली-बस में हम चढ़े, कंडक्टर ने पैसे लिए और इससे पहले कि बिल माँगा जाए,मंजिल आ गयी.बिल बनाया गया ४० रुपयों का, और १०० मीटर न चली होगी बस. पिछली बार ऑटो वाले थे, इस बार बस वाला-कुछ चीज़ें नहीं बदली थी.
      जल्दी ही आगे का यात्रा वर्णन लिखूंगा...आते रहिएगा ब्लॉग पर दो एक दिनों में..

शनिवार, 8 दिसंबर 2012

प्यार एक बीज - Gulzaar Saahab


प्यार एक बीज 

प्यार कभी एकतरफ़ा होता है ना होगा
कहा था मैने
दो रूहों की एक मिलन की जुड़वाँ पैदाइश है यह
प्यार अकेला जी नहीं सकता
जीता है तो दो लोगों में
मरता है तो दो मरते हैं

प्यार एक बहता दरिया है
झील नहीं की जिसको किनारे बाँध के बैठे रहते हैं
सागर भी नहीं की जिसका किनारा होता नहीं
बस दरिया है और बहता है
दरिया जैसे चढ़ जाता है, ढल  जाता है
चढ़ना ढलना  प्यार में वो सब होता है
पानी की आदत है ऊपर से नीचे की जानिब बहना
नीचे से फिर भागती सूरत ऊपर उतना
बदल बन आकाश में बहना
काँपने लगता है जब तेज़ हवाएँ छेड़े 
बूँद बूँद बरस जाता है

प्यार एक जिस्म के साज़ पे बजती बूँद नहीं है
ना मंदिर की आरती है ना पूजा है
प्यार ऩफा है ना लालच है
ना लाभ ना हानि कोई
प्यार ऐलान है अहसान है ना कोई जंग की जीत है यह
ना ही हुनर है ना ही इनाम ना रिवाज़ ना रीत है यह
यह रहम नहीं यह दान नहीं
यह बीज नहीं जो बीज सके
खुश्बू है मगर यह खुश्बू की पहचान नहीं

दर्द दिलासे शक़ुए विश्वास जुनून और होश-ओ-हवस की एक अहसास के कोख से
पैदा हुआ है
एक रिश्ता है यह
यह संबंध है -
दो नाम का दो रूहों का पहचानों का
पैदा होता है बढ़ता है यह
बूढ़ा होता नहीं

मिट्टी में पले एक दर्द की ठंडी धूप तले
जड़ और तरक्की की फसल काटती है
मगर यह बांटती नहीं
मट्टी और पानी और हवा कुच्छ रोशनी और तरीक़ुई कुच्छ
जब बीज की आँख में झाँकते हैं
तब पौधा गर्दन ऊँची करके
मूँह नाक नज़र दिखलता है
पौधे के पत्ते पत्ते पर कुच्छ प्रश्न भी है उत्तर भी

किस मिट्टी की कोख थी वो
किस मौसम ने पाला पोसा
और सूरज का छिडकाव  किया
किस सिमट  गयीं शाखें उसकी

कुच्छ पत्तों के चेहरे ऊपर हैं
आकाश की जानिब ताकते हैं
कुच्छ लटके हुए हैं
ग़मगीन मगर
शाखों की रागों से बहते हुए पानी से जुड़े हैं
मट्टी के तले एक बीज से आकर पूछते हैं-

हम तुम तो नहीं
पर पूछना है-
तुम हमसे हो या हम तुमसे

प्यार अगर वो बीज है तो
एक प्रश्न भी है
एक उत्तर भी !

सुने - http://www.youtube.com/watch?v=_Pak7A0165g

-गुलज़ार

गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

दूसरा बनवास


दूसरा बनवास 
             - कैफ़ी आजमी 
राम बनवास से जब लौट के घर में आए
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आए
रक़्से दीवानगी आंगन में जो देखा होगा
छह दिसंबर को श्रीराम ने सोचा होगा
इतने दीवाने कहां से मेरे घर में आए
जगमगाते थे जहां राम के क़दमों के निशां
प्‍यार की कहकशां लेती थी अंगड़ाई जहां
मोड़ नफरत के उसी राह गुज़र से आए
धर्म क्‍या उनका है क्‍या ज़ात है यह जानता कौन
घर न जलता तो उन्‍हें रात में पहचानता कौन
घर जलाने को मेरा लोग जो घर में आए
शाकाहारी है मेरे दोस्‍त तुम्‍हारा ख़ंजर
तुमने बाबर की तरफ फेंके थे सारे पत्‍थर
है मेरे सर की ख़ता जख़्म जो सर में आए
पांव सरजू में अभी राम ने धोए भी न थे
कि नज़र आए वहां खून के गहरे धब्‍बे
पांव धोए बिना सरजू के किनारे से उठे
राजधानी की फ़िजां आई नहीं रास मुझे
छह दिसंबर को मिला दूसरा बनवास मुझे

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

तलाश

(मेरे एक मित्र की एक बहुत ही अच्छी कविता साझा करता हूँ ।)

"तलाश"

 

वो दोपहर को धूप में
घड़े को सर पर रखकर ,
रेत के धोरों में पानी तलाशती,
बंजारने ..

वो रेत के बदन पर पड़ते
उन सूखे पैरो के निशान
एक करवट लेकर
हर निशानी सोख लेता है रेगिस्तान
उसकी प्यास इसी से बुझती है शायद...

ये खाली कलासियाँ और ये बंजारने
खाली ही गूंजती रहती है हवाओ में
और घोलती रहती है प्यासा सुर ........
जो इस सूरज का ताप कम करता है ..
जो इनके पैरों के छालों की जलन कम करता है...

जिंदगी भी उसी मरुस्थल सी है
हम सब बंजारने ...
ढूँढ़ते रहते है रेगिस्तान में पानी

- अनिल जीनगर 

दुखांत ये नहीं होता ....


दुखांत ये नहीं होता .....

दुखांत यह नहीं होता कि रात की कटोरी को कोई जिन्दगी के शहद से भर न सके, और वास्तविकता के होंठ कभी उस शहद को चख ना सकें ....दुखांत यह होता है कि जब रात की कटोरी पर से चंद्रमाँ की कलई उतर जाये और उस कटोरी में पड़ी कल्पनाये कसैली हो जाये.

दुखांत ये नहीं होता की आपकी किस्मत से आपके साजन का नाम-पता ना पढ़ा जाये और आपकी उम्र की चिट्ठी सदा रुलती रहे. दुखांत यह होता है कि आप अपने प्रिये को अपनी उम्र कि सारी चिट्ठी लिख लें और आपके पास से आपके प्रिये का नाम पता खो जाये.

दुखांत यह नहीं होता कि जिन्दगी की लम्बी डगर पर समाज के बंधन अपने कांटे बिखेरते रहे..और आपके पैरो में से सारी उम्र लहू बहता रहे. दुखांत यह होता है कि आप लहू लुहान पैरो से एक ऐसी जगह पर खड़े हो जाये जिसके आगे कोई रास्ता आपको बुलावा न दे.

दुखांत यह नहीं होता कि आप अपने इश्क के ठिठुरते शरीर के लिए सारी उम्र गीतों के पैरहन सीते रहें. दुखांत यह होता है कि इन पैरहनो को सीने के लिए आपके विचारो का धागा चूक जाये और आपकी सुई (कलम) का छेद टूट जाये. 
                              - अमृता प्रीतम  की आत्मकथा  "रसीदी टिकट" से