मंगलवार, 27 नवंबर 2012

गरम चाय की कुल्हड़ और एक सर्द शाम

गरम चाय की कुल्हड़  और  एक सर्द शाम







कुल्हड़ ....
शब्द जितना है अल्हड ...

सिर्फ शब्द नहीं, मानव हाथों और मिट्टी का जोड़ है, अगढ़......

समय के अंधड आने से पहले .......

जब शाम व्यस्त के बजाय सर्द हुआ करती थी ......
चौराहे की किनारे एक छोटी सी दुकान....
और गरम चाय एक कुल्हड़ में .......
मिट्टी नुमा खुशबू उठती थी .....
चाय के रस में सराबोर होकर .......
तिलिस्म सिर्फ सर्द और चाय में ही नहीं कुल्हड़ में भी था ......
अंतिम घूंट तक चाय के ताप को बस यूँ बनाए रखना ........
या फिर इस ढंग से कम करना .......
मानो जिंदगी निकल जाये और जवां होने का भ्रम भी बना रहे ......
और फिर धरा पे चटक जाये बेखबर .........
छोटे - छोटे टुकड़ों में बिखर .....
अस्तित्व के मोह को छोड़कर ......
चयन सृष्टि के चक्र का सफर ..............
गरम चाय की कुल्हड़ ,..........
सर्द शाम में .........
अहसास कराती थी ,..........
जीवन बस यूँ ही है ..........
निरन्तर ..................


                                                 - नेपथ्य निशांत 

रविवार, 25 नवंबर 2012

विभाजित

हम हैं आज  खंडित, और विभाजित
हर एक है सम्मिलित, वर्ग अनगिनत
धर्म में,  कर्म में
पद में, कद में
देश में, वेश में
जाति में, ख्याति  में
वर्ण में, लक्षण में
भूखंड में, घमंड में
अर्थ में, सामर्थ में
दल में, जल में
जाने कितने जन में, जाने कितने गन में
सुन्दर है विविधता, और ये  विभिन्नता
हो सम आदर अगर, मानवता जाये संवर  
क्यों नहीं हो समाकलन, और जियें हम  मानव बन  

गुरुवार, 22 नवंबर 2012

बचकानी बातें

1. सूरज का रंग लाल और चंद्रमा सफेद क्यों होता 
रात के अँधेरे  में वो चाँद में रंग कैसे भर पाता

2. बड़े होकर लोंगों ने जंगल मिटा दिए
अब फिर से अपनी ड्राइंग बुक में बनाने होंगे

3. पंखा चालू होते ही हवा बिखरने लगी
जैसे किसी ने बटन दबा कर हवा का डब्बा खोल दिया

4. बारिश होते देख अचरज  तो बहुत हुआ
सोचा धरती भी कभी कभी शावर  में नहाती होगी

5. बर्तन बजाकर  संगीत सा लगता था कभी
अब उनके टकराने की आवाज़ से घर बिखरता सा लगता है

6. समुन्दर का पानी क्यूँ हो गया है नमक सा
लोगों का पसीना रस्ते भर घुलता रहा होगा

7. माँ  कहती थी कि  चाँद में दाग हैं
आज कल सुनते हैं कि  दाग अच्छे हैं

ज़िन्दगी का हाथ बड़ा तंग है - किशोर चौधरी




















दरअसल जो नहीं होता,
वही होता है सबसे ख़ूबसूरत
जैसे घर से भाग जाने का ख़याल

जब न हो मालूम कि जाना है कहां.

ख़ूबसूरत होता है शैतान का पहली बार सोचना,
अपनी प्रेमिका के बारे में और पुकारना उसका नाम
इससे भी ख़ूबसूरत होता है, न सोचना अंज़ाम के बारे में.

किसी पुराने पेड़ की छाँव में बैठना कुछ देर
उससे कहना कि
दिल में बसा लिया है तुमको, अब अलविदा
कि ख़ूबसूरत होता है, अलविदा से थोड़ा पहले का वक़्त.

कारीगर का सोचना
कि इस अलमारी में वह अपना कुरता टांगेगा
पास वाली में टंगे रहेंगे एक नाज़नीन के कुछ शोर्ट्स
और फिर हेंगर वाली लकड़ी को ढ़ाल देना
अपनी महबूबा की कमर के बल की तरह
कि ख़ूबसूरत होता है, किसी के प्रेम में बढ़ई हो जाना.

ख़ूबसूरत होता है ख़त नवीस होना
लिखना सात समन्दर पार तक आई है तुम्हारी याद
और ये न लिखना कि
एक बार फिर मैंने तोड़ दिया है, मिलने का वादा
कि किसी को उदास न करना भी होता है ख़ूबसूरत.

यूं तो भरी होती है दुनिया, हीरे और जवाहरातों से
मगर ख़ूबसूरत होती है, महबूब की बिल्लोरी आँखें
उससे भी ख़ूबसूरत होता है, शैतान का उनको देखना.

लम्बी उम्र में कुछ भी अच्छा नहीं होता
ख़ूबसूरत होती है वो रात, जो कहती है, न जाओ अभी.

ख़ूबसूरत होता है दीवार को कहना, देख मेरी आँख में आंसू हैं
और इनको पौंछ न सकेगा कोई
कि उसने जो बख्शी है मुझे, उस ज़िन्दगी का हाथ बड़ा तंग है.

कि जो नहीं होता, वही होता है सबसे ख़ूबसूरत.

शनिवार, 17 नवंबर 2012

कली को खिलते देखा

मैनें  कली  को  खिलते  देखा
दुनिया  की  हवाओं  को  सहकर  फूल  बनते  देखा

वो  एक  छोटी  सी  नाजुक , शरमाई   हुई
बाह्य आवरण  के  संरक्षण  में  छुपी  एक  कली  थी
उस  बाग  के  माली  की  मेहनत , लगन
और  पौधे  की  आरजूओं  के  बीच  पली  थी

फिर  उसने  अपने  आवरण  को  तोड़  दिया
चारों  तरफ  के  वातावरण  को  मोहित  किया
अपनी  खुशबू  से  बाग  को  महका  दिया
रंग  रूप  से  सबको  सम्मोहित  किया

उसकी  बंद  परतें  खुलने  लगी  थी
उसके  अंग  बहकने  लगे  थे
उसकी  अंगडाई में  अजब  सी  मदहोशी   थी
भौरें भी  उस  पर  चहकने  लगे  थे

उसके  मन  में  भी  था  गहरा  सागर
जिसमें  बसे  भाव  अब  उमड़ने  लगे  थे
पर  माली  के  दिल  की  कौन  जाने
कब  फूल  पौधे  से  बिछड़ने  लगे  थे

अंतर्मंथन

वक्त हो गया खुद से मिले हुये
 खुद से मिलना  मुश्किल लगता
समय नहीं मिलता है या
मैं खुद से ही नहीं मिलना चाहता
बहुत से प्रश्न हैं  उसके
कौन हो, क्या है तू चाहता ?
और मैं अनुतरित
कैसे मिलने की हिम्मत जुटाता
थाली में चाँद दिखा कर
हर बार ऊंचाई का एहसास दिलाता
अब वो वयस्क हो गया
पहले की तरह कैसे बहलाता
हर छल को समझने लगा
कब तक नयी कहानी सुनाता
जान गया है वो मेरी कमजोरी
कुछ नहीं है जो मैं कर दिखा पाता
कबसे रास्तों में घूम रहा
एक ही जगह बार बार पहुँच जाता
इतने सालों  में कुछ हुआ तो
सिर्फ समय चला और मैं ठहर सा जाता
आज सोचा उससे मिल ही लें
कहने सुनने से ही  कुछ ताजा लगता
उलझा देख मुझे वो बोला
कलम उठा के क्यूँ कुछ नहीं लिखता

सोमवार, 12 नवंबर 2012

दीपदान-केदारनाथ सिंह

























जाना फिर जाना
उस तट पर भी जा कर दिया जला आना
पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है

उस उड़ते आँचल से गुड़हल की डाल
बार-बार उलझ जाती हैं
एक दिया वहाँ भी जलाना

जाना फिर जाना..

एक दिया वहाँ जहाँ नई-नई दूबों ने कल्ले फोड़े हैं
एक दिया वहाँ जहाँ उस नन्हें गेंदे ने
अभी-अभी पहली ही पंखड़ी बस खोली है
एक दिया उस लौकी के नीचे
जिसकी हर लतर तुम्हें छूने को आकुल है
एक दिया वहाँ जहाँ गगरी रक्खी है
एक दिया वहाँ जहाँ बर्तन मँजने से
गड्ढा-सा दिखता है
एक दिया वहाँ जहाँ अभी-अभी धुले
नये चावल का गंधभरा पानी फैला है
एक दिया उस घर में -
जहाँ नई फसलों की गंध छटपटाती हैं
एक दिया उस जंगले पर जिससे
दूर नदी की नाव अक्सर दिख जाती हैं
एक दिया वहाँ जहाँ झबरा बँधता है
एक दिया वहाँ जहाँ पियरी दुहती है
एक दिया वहाँ जहाँ अपना प्यारा झबरा
दिन-दिन भर सोता है
एक दिया उस पगडंडी पर
जो अनजाने कुहरों के पार डूब जाती है
एक दिया उस चौराहे पर
जो मन की सारी राहें
विवश छीन लेता है
एक दिया इस चौखट
एक दिया उस ताखे
एक दिया उस बरगद के तले जलाना

जाना फिर जाना
उस तट पर भी जा कर दिया जला आना
पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है
जाना फिर जाना!

रविवार, 11 नवंबर 2012

"गोपाल दास नीरज की एक कविता दीपोत्सव के मौके पर पठनीय एवं विचारणीय"


जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए ।

नई ज्योति के धर नये पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन-स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण-द्वार जगमग,
उषा जा न पाए, निशा आ ना पाए।

जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यों ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए।

जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए ।

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ़ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आएँ नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे हृदय में उजारा,
कटेगे तभी यह अँधेरे घिरे अब
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए।

जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए ।
- नीरज

बुधवार, 7 नवंबर 2012

रोना है


I.
रोना है उन आँखों के लिए
जो अब रोती ही नहीं

रोना है उन विचारों के लिए
जो  अब हमारे नहीं

रोना है उस क्रांति के लिए जो
फ़िल्मी पर्दों में खो गयी

उस देश के लिए जिसके गरीबों  का जीवन
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों गिरवी रखा गया.

II.
रोना है उन मजदूरों के लिए
जो आज भी भूखे सो गए

उन बच्चों के लिए जो
अपाहिज भविष्य के साथ जन्में

उन औरतों के लिए जो त्यौहार पर
अपनी शादी की साड़ी रफ़ू कर रही है

उन  किसानों के लिए जिनकी  सांसें रुक चुकी हैं
महाजन  के कर्जों तले.

III.
रोना  है उन जंगलों के लिए
जहाँ से आदिवासियों को बेदखल किया गया.

उस  नदी के लिए जिसका पानी रोका गया
चंद शहरी बाबूओं की सुविधा के लिए.

रोना है उस दिल के लिए जो अब अंधा हो चला है
उस ज़ेहन  के लिए जो सुन्न है, जड़ है.

सोमवार, 5 नवंबर 2012

नवजीवन



तुम्हे जन्म मिला है वहाँ,
नहीं पड़ता कोई भी फ़र्क,
जहाँ तुम्हारे नहीं होने से।
हाँ, तुम्हारे होने से,
लोगों की मुश्किलें ज़रूर बढ जाती है ।

तुम्हे जन्म मिला है वहाँ,
पलक पाँवडे बिछाये बैठी,
है कर रही इन्तज़ार जहाँ,
जन्म से पहले ही तुम्हारे स्वागत में ,
तुम्हारी भावी विषमताएँ ।
जिन्हे खत्म करने का नहीं हुआ,
प्रयास भी, दशकों से ।

तुम्हे जन्म मिला है वहाँ,
जहाँ तुम्हारे नहीं हो सकते मौलिक अधिकार,
क्योंकि तुम नहीं हो इन्सान,
और तो और लड़ भी नहीं सकते,
तुम उस की तरह, इतनी क्रूरता से ।

तुम्हे जन्म मिला है वहाँ,
जहाँ की सुन्दरता पे है कलंक,
तुम्हरी प्रजाति |
है हर उस राहगीर की बाधा ,
जो यह नहीं समझता की वो भी तुम्हारी बाधा है ।

फिर भी तुम्हें जन्म यहीं मिला है,
जहाँ नहीं होना चाहिये तुम्हे,
किसी भी सूरत में |
क्या करे ?
ये तुम्हारा भी दुर्भाग्य है, और उनका भी !

- जय
(एक साल पहले इन्फ़िनिटी कोरिडोर में रात को 3 बजे जन्म लेते बछडे को समर्पित)

रविवार, 4 नवंबर 2012

"वाणी में अमृत भर दे माँ "

जीवन में इतना कर दे माँ ,वाणी में अमृत भर दे माँ !

बीज डाले थे तूने जो रस के,उन बीजों को अंकुर कर दे माँ !

वाणी में अमृत भर दे माँ !

नए पुष्पों की बगिया सुन्दर ,वाणी होवे ज्ञान समुंदर !

हिन्द गुलिस्तां गुल खिल जाये ,इत्र सुगन्धित सात समुंदर !

नए फागुन का नया सवेरा ,भारतवर्ष में कर दे माँ !

वाणी में अमृत भर दे माँ !



माँ !बचपन को याद दिला दे,असली बचपन क्या है !

बाल - सुलभ सब खेल कहाँ गए ,क्यों नित सकुचाती त्रिज्या है ?
वो जल बरसा दे जिसमे ,कागज की किस्ती चल दे माँ !

वाणी में अमृत भर दे माँ !

क्यों है इतना शोर हो रहा है ,नहीं सुनाई कुछ देता !

नन्ही बेटी की मृदु वाणी को ,कुचल ज़माना क्यों देता ?

उस प्यारे -से भोलेपन का ,अब उजियारा कर दे माँ !

वाणी में अमृत भर दे माँ !

चंचल पंछी उड़ते जाना ,आज खबर फैलाना है !

बिन करुणा रोती करुणा को ,करुणा से सहलाना है !

वीणा की इक तान छेड़ दे ,सुर का झरना झर दे माँ !

वाणी में अमृत भर दे माँ !

                                 -परमानंद 

शनिवार, 3 नवंबर 2012

ये ज़िंदा लाशों का शहर है।


ये ज़िंदा लाशों का शहर है। 

ठहरी हुई ज़िन्दगी थामकर 
लोग रोज़ भागते है,
किस और भागते है, क्या खबर ?
मंजिल दूर ही रहती है ...

खुद गुमशुदा रास्ता दिखाते है,
अंतहीन इस भूल-भुलैया में
अंधेरों में रोशनी तलाशते है ...  

ये ज़िंदा लाशों का शहर है।


घड़ियाँ यहाँ मनमौजी है,
कभी दौडती बेसुध, कभी थम सी जाती है ..

फुर्सत में आइना अजनबी लगता है,
न जाने कौन ? 
सफ़ेद बाल, झुरियां थकी सी,
कल तो उसपार एक नौजवान रहता था।

आग जलती रहे अगली सुबह भी 
इस कोशिश में,
रंगीन पानी में हर रात डुबाते है .. 

ये ज़िंदा लाशों का शहर है।


यहाँ शोर में खामोशी है,
पर सन्नाटों का शोर है ...
आँख खोल कर सोते है,
जागते बंद आँखों से ...

हकीकत बेच कर यहाँ
सपने खरीदते है लोग ...
उगती शामों में परिंदे,
घर नहीं लौटते,
ना ही माँ इंतज़ार करती है ..
चूल्हे की आग ठंडी सी है।
ये ज़िंदा लाशों का शहर है।


लो इस अजीब शहर में, 
एक सुबह फिर 'डूब' गई ।