बुधवार, 31 अक्तूबर 2012
बुधवार, 24 अक्तूबर 2012
आओ आज एक रावण जलाएं
पुतले बहुत बनाए तुमने,
कई रचाई रामलीलाएं,
भगवा कपडे पहन के तुमने,
श्री राम के गुण भी गए|
अग्निबाण भी छोडा तुमने,
स्वर्ण-कवच भी तोड़ा तुमने,
पर उठते उस धुंए के पीछे,
जाने रोज़ कौन जलता है ...
रावण तो दिल में पलता है|
है राम नहीं , पर बहुत है रावण,
शापित-पापित इस लंका में,
राम यहाँ जीता है डर कर.
जल जाने की आशंका में ...
चलो राम को खोजा जाए,
चलो पीड़ित सीता को बचाएं,
ताकत के मद में जो बेकाबू,
उनकों भी अब सबक सिखाएं...
आओ आज एक रावण जलाएं,
आओ आज एक रावण जलाएं||
Painting- Ravi Veerma
शनिवार, 20 अक्तूबर 2012
सागर के आस पास
सागर के आस पास
- निशांत कुमार
शाम का समय था. सागर
पर सूरज की किरणें लाल चादर बिछा रही थी. कन्याकुमारी के सनसेट पोइंट पर कुछ लोग सूरज की तरफ टकटकी
लगाये देख रहे थे. सच कहूँ तो आँखों से ज्यादा कैमरे सूरज की तरफ टकटकी
लगाये देख रहे थे. कुछ लोग सूरज की तरफ पीठ करके सूरज के साथ फोटो खींचाने में मशगुल
थे, तो कुछ आंखे बंद करके सूरज का ध्यान कर रहे थे. सागर की लहरें बार बार सामने के
पत्थरों पर टकरा कर लौट रही थी. पत्थरों पर उगे हुए शैवाल एवं
काई लहरों के साथ साथ अपनों को मोड ले रहे थे. कभी कभी कोई केकड़ा भी पत्थरों पर इधर
उधर उछल कूद कर अपनी उपस्थिति को दर्ज करा रहे थे. भिन्न भिन्न रंगों के रेत सागर के
किनारे कहीं उलझे हुए तो कही सुलझे हुए बिखरे पड़े थे. हर एक लहर के बाद ये रेत नये
क्रम के व्यूह का निर्माण कर रहे थे. कुछ बच्चे रेत का महल बनाने एवं बिगाड़ने के खेल में लगे थे. एक गृहणी रेत एवं पत्थरों के बीच सीप एवं शंख की खोज
कर रही थी. सामने दूर खड़ा उसका पति साथ फोटो खिंचवाने के लिए आवाज़ दे रहा था. कुछ विदेशी सैलानी
एक किनारे पड़े नाव पर बैठकर सागर की तरफ देख रहा था. कुछ लोग की आँख सैलानियों के पोशाकों
पर जा टिकी थी. वहीं कुछ की आंखें
पोशाकों को तार तार कर उसके भीतर झाँकने की कोशिश कर रही थी. थोड़ी दूर में ही मछुवारों का एक समूह जाल को ठीक
करने में लगा हुआ था. सामने खड़ा कुत्ता जाल में फंसे छोटे कीड़ों के बाहर आने के इंतज़ार
में निगाहें गडाये खड़ा था.
इन सबके
बीच, सारी बातों से बेखबर सूरज पूरी तन्मयता के साथ डूबता जा रहा था. सूरज
ने सागर के लहरों को जैसे ही छुआ, लोग खड़े हो हो कर फ्लेश
चमकाने लगे, मानो सूरज भी कोई बड़ा
घोटाला कर इस्तीफा देने जा रहा हो. फिलहाल सूरज डूब चुका था.
सूरज के डूबने के साथ साथ तमाम लोग लौटने लगे थे. एक चाय वाला 'चुड चाया1 ' 'हॉट टी' की आवाज़ लगा रहा था.
मनोहर ने चाय वाले को आवाज़ लगाई. " रंड2 टी" और फिर चाय लेकर मनोहर ने अपने मित्र जीतन
को चाय दी.
बिहार के झाझा और लक्खीसराय के
बीच के एक गावं पिपरिया का 'मनहरवा' से स्कुल के रजिस्टर में दर्ज नाम 'मनोहर' से कब तमिलनाडु में आकर 'मनोहरन' हो गया, पता ही नहीं चला. मनोहर उर्फ मनहरवा उर्फ मनोहरन को तमिलनाडु आये
हुए एक सालगुजर चुका है. मुम्बई में झगडे फसाद
का माहोल बनता देख उसने कहीं और किस्मत अजमाने को सोचा. उन्ही दिनों ही उसे
ढाबे पर एक दिन मुरुगन मिला था.
मुरुगन के ही बताये हुए रास्ते पर
चल कर वह एक दिन कन्याकुमारी के किलिपारा गावं में केले एवं नारियल के बागान पर काम
करने चला आया. मुरुगन उस वक्त अरब जाने के लिए कुछ कागज पत्तर के चक्कर में मुंबई
आया था. वेल्डिंग में आई टी आई मुरुगन के लिए अरब में काम का वीजा मिलना सपनों के नए
पंख खुलने के सामान था. तो मनोहर के लिए किलिपारा टूटते सपनों के पहियों में नए टायर
से कम नहीं था. मुरुगन ने उसे अरब से लौटने पर किलिपारा में मिलने का वादा किया
था. खैर मुरुगन तो ना जाने किस 'चिट्टी ना कोई सन्देश वाले देश' में चला गया की उसका
कोई अता-पता भी नहीं है. लेकिन मनोहर सपनों के घिसे हुए टायर में हर दिन हवा भर कर
जिंदगी के सफर में सरपट दौडने की कोशिश जरूर करता. आज फिर इन्ही सपनों के घिसे, पुराने टायर में हवा भरने के मकसद से उसने
जीतन के साथ कन्याकुमारी के सैर की योजना बनाई थी. काफी देर हो चुकी थी,
अब किलिपारा के लिए
सीधे बस तो मिलने से रही तो मनोहर को नागरकोइल
होकर जाना पड़ेगा.
दसवीं कक्षा तक पास की है, मनोहर ने. कॉलेज में
नाम लिखवाने के बाद भी कॉलेज नहीं जा पाया. बाबू जी के अचानक देहांत के बाद घर सम्भालने
की जिम्मेदारी आ गयी. तभी उसे ख्याल आया, आज शाम वाली बस में काफी लोग खड़े है .
बस कंडक्टर लोगों को 'मुन्नाडी पो3, मुन्नाडी पो' कहते हुए सामने वाले
जोड़े के पास जा कर खड़ा हो गया. बस कंडक्टर के हाथ
में एक छोटा सा मशीन है , जिसमें वह २ - ३ बटन दबाने के बाद टिकट निकाल कर लोगों को देता.
जीतन मनोहर से बोल
रहा है " एत्ते बड मशीन ले के टिकट बाटें की कोने जरूरत है, टिकेटवे सीधे काहे
नहीं बांटट है ससुरा"
मनोहर "जीतनवा
तू सदा बूडबके रहभीं, इम्मे टिकटवा के साथ
साथ टेकवो के भी हिसाब हो जात है, चल अच्छा निकाल छ: टका, भाड़ा दिए के है"
“अभी हमर जुगुर खुचरा
नय खे, तूं ही दे दिहि न भडवा”
"हाँ तू तो हमेशा करारी
करारी टेका ले के चले हीं, खुचरा काहे के राखभीं.
लागत है, तू टेका वाला मंत्रवा बढियां से याद राखले हीं
टका ही धर्मम्,
टका ही कर्मम् ,
ना टका तो टकटकाये
नमः"
तभी पीछे बैठे लड़की
की आवाज़ उसे सुनाई दी.
“टू टिकट त्रिवेन्द्रम” कंडक्टर ने जवाब दिया
" अरवती आर रूपा 4"
लड़का "कितने रूपये,
हाव मैनी रुपीज?"
कंडक्टर " फिफ्टी
इल्ये इल्ये5 , सिक्सटी एंड ......." और सोचने लगता है.
तभी लड़की बोलती है
"हिंदी इज आवर नेशनल लंग्वेज, बट हीयर नो वन नोज हिंदी. इट्स मेड मी मैड"
लड़का " राईट नाउ,
हमेँ किसी की हेल्प
की जरुरत है. यहाँ पे भी लोग हिंदी जानते है. यू हेव नॉट नोटिस इन शॉप "
तभी मनोहर ने कहा
"जी छियासठ टका, मेरा मतलब छियासठ रूपये
भाड़ा है " लड़के ने पैसे देकर टिकट ले लिए.
लड़की ने जवाब दिया
"थेंक्यू, जी आप यहीं काम करते है."
"जी, यहीं पर नागरकोइल के
पास, आपलोग क्या घूमने आये थे”
"हाँ, घूमने ही आये थे. वी
आर सॉफ्टवेयर इंजीनियर, त्रिवेंद्रम के टेक्नोपार्क में काम करते हैं."
सॉफ्टवेयर इंजीनियर
से ही मनोहर को याद आया, उस दिन मुरुगन,
जीतनवा और दो चार आदमी
गप कर रहे थे. उसमें एक आदमी बता रहा था. हम मजदूरों की तरह सॉफ्टवेयर इंजीनियर भी
हर जगह काम करते है. आज यहाँ, कल वहाँ. जब जिस कंपनी का मालिक ज्यादा पैसा देता है,
वो उस कंपनी में चले
जाते है. उसका भी भाई तो इंजीनियर बनना चाहता है. लेकिन वह साफ़ कह देगा कोई भी इंजीनियर
बने सॉफ्टवेयर इंजीनियर ना बने. जिसमें हमेशा मजदुर की तरह इधर उधर घूम कर नौकरी करना पड़ता है. इंजीनियर तो
उसने अपने गावं पर देखा था. पुल के ढलाई के दिन इंजीनियर साहब आये तो मुन्ना ठेकेदार
ने मुर्गा कटवाया था. कुछ लोग तो कहते हैं, की स्पेसल बाई जी का
भी इंतजाम था,
इंजीनियर साहब के लिए.
भगवान जाने क्या सच है, क्या झूठ है. यह अलग बात थी की लाखों की लागत से बना वह पुल
दो बरसात भी नहीं देख पाया.
मुन्ना ठेकेदार के
खिलाफ शुरू में जांच हुई थी, बाद में उसे ही फिर पुल बनाने का ठिका दे दिया. और फिर एक दिन
उसने सुना, मुन्ना ठेकेदार का अपहरण हो गया. कुछ लोग कहते थे,
लालखंडीयों ने उसका
अपहरण कराया था, कुछ लोग कहते थे, भूतपूर्व विधायक के गिरोह ने अपहरण कराया
था. कुछ लोग कहते हैं की दोनों ने मिलकर मुन्ना का अपहरण किया था. भगवान जाने का सच
का झूठ था. लेकिन मुन्ना दो चार दिन में ही छूठ कर आ गया था. और फिर एक बार पुल की
ढलाई हुई. फिर इंजीनियर साहेब के लिए मुर्गा एवं स्पेसल बाई का इंतजाम हुआ था. लेकिन
इस बार पुल एक बरसात भी नहीं देख पाया था. नदी में पानी का स्तर काफी अधिक हो गया था.
पानी की तेज लहर पुल के ऊपर से गुजर रही थी. शाम वाली मिनी बस पुल से गुजर रही थी और
देखते देखते बस सहित पुल नदी में जा गिरी. काफी चीख पुखार मची हुई थी.
उसका अभागा बाप बस
में बचे लोगों को निकालने की कोशिश कर रहा था. दो बार की डूबकी में दो लोगों को उसने
बस से निकाला. तीसरी बार की डूबकी में क्या
हुआ, नदी की तेज धारा में बस ने दुबारा करवट ली और उसका बाप फिर निकल ना सका. और साथ में दफ़न हो गये बहुत सारे उसके वो सपने भी, अब वो उन्हीं सपनों
को अपने भाई के माध्यम से जीना चाहता था. वह अपने भाई को पुल बनाने वाला इंजीनियर ही
बनाएगा, जो मुन्ना जैसे ठेकदारों के लालच में ना आये और जो भी पुल बनवाये वो बहुत दिन तक
चले. लेकिन कल जतिनवा बता रहा था की कहीं तो एक पुल बनाने वाला इंजीनियर को बिजली का झटका दे दे कर इस लिए मार दिया गया, क्यों की वह दो नंबर
का पैसा कमाने के लिए नेता एवं ठेकेदार से साठ
-गांठ करने के लिए तैयार नहीं था. नहीं फिर वह जान को खतरे में डालने
के लिए अपने भाई को पुल बनाने वाला इंजीनियर के बजाय सॉफ्टवेयर इंजीनियर ही बनाएगा.
अभी तो उसका भाई दसवीं कक्षा में पढता है.
अगले साल वह उसका नामाकंन
पटना साईंस कोलेज में कराएगा. लेकिन इतना पढाई के
खर्चे के लिए वह इतना कहाँ कमा सकेगा. नहीं यदि भाई के पढाई के लिए जमीन भी बेचना पडा,
तो भी वह उसे सॉफ्टवेयर
इंजीनियर ही बना कर ही रहेगा. लेकिन यह सॉफ्टवेयर इंजीनियर आखिर काम क्या करते है. उसने सामने वाले लड़के से पूछा. पहली बार इयर पलग लगाये लड़के ने ध्यान ही नहीं दिया,
दूसरी बार पूछने पर
उसने बताया
“सॉफ्टवेयर इंजीनियर कंप्यूटर पर काम करता है. ऐसा कहें की वह
कंप्यूटर पर प्रोग्राम लिखता है"
कंप्यूटर के बारे में मनोहर ने भी सुन रखा है. कई
दुकानों एवं ऑफिस पर उसने कंप्यूटर देखा भी था. लेकिन कंप्यूटर पर प्रोग्राम की बात
उसे समझ में नहीं आया.
उसने दुबारा पूछा
" भाई साहब, प्रोग्राम माने तो कार्यक्रम होता है. तो कम्पूटर में कैसा कार्यक्रम
लिखा जाता है"
लड़के ने लड़की की तरफ
मुस्कुराते हुए कहा " व्हाट ए स्टुपिड क्वेशचन !" फिर बोला प्रोग्राम माने
कार्यक्रम नहीं समझों की हमलोग कंप्यूटर का दिमाग लिखते हैं. जिससे कंप्यूटर पर कोई
हिसाब किताब होता है.
तभी लड़की ने लड़के को देखते हुए शरारत से कहा
"ओह तो यू आर राइटिंग माइंड ऑफ कंप्यूटर. ओपरेटिंग सिस्टम के
लिए प्रोग्राम लिखते हो क्या?. कहो की डाटा एंट्री करते हो कंप्यूटर पर. डिग्री हठोडा चलाने
वाले इंजीनियरिंग में ली है, और बन गये हो सॉफ्टवेयर इंजीनियर."
"फर्क क्या पड़ता है,
एक मेकेनिकल इंजीनियर
से ज्यादा सॉफ्टवेयर में कमा रहा हूँ, और तेरी जैसी खूबसूरत लड़की भी पार्टनर मिली है."
अब तक मनोहर को कुछ
कुछ समझ में आ चुका है, की सॉफ्टवेयर इंजीनियर कंप्यूटर का दिमाग लिखता है
और बस भी नागरकोइल के बड़ासेरी बस स्टैंड में पहुँच चुकी है. अब
किलिपारा जाने के लिए उसे यहाँ से एक किलोमीटर दूर अन्ना बस स्टैंड से किलिपारा के
लिए दूसरी बस मिलेगी. बडासेरी से रास्ते में जाते हुए उसे जीतन सी डी की दुकान देखकर
मनोहर से कहता है
"
अबे मनोहरवा ,
जखने मुंबई में रहल जाला, होटलवा के काम फुराई के बाद सी डी लगा के सिनेमा देखल जाला. गरम
मसाला देखले बहुत दिन हो गईला. अब तो साला
हमन सब सन्यासी बन गईल."
“सन्यासी के बात ना
करों, आज कल कईयों बाबा लोग के भी गरम मसाला सिनेमा बाजार में बिकेला."
"लेकिन किलिपारा में
अपुन जुगुर जब टी वी ये नहीं खे. तब देखाबों कहाँ. सिनेमवा जब तमिल में
रही, तो बुझलों में कैसे
आई.”
“तूहू, अजीब बात कर त. वोहो सिनेमा देखे बास्ते भाषा
के जरूरत पड़ी.”
"दुकनियाँ में जा कर
मान्गेबों कोने नाम से. हिंदी उ बुझेबे ना करी, तमिल में गरम मसाला
सी डी के का कहल जाला बुझते ना बाड़ा"
"तब चल, चलल जाई. मुरुगन के
कहेबे व्यवस्था करे के. लेकिन उ अरब में वेल्डिंग करत करत हेरा गईल बा. जब आई तब कहब "
थोरी दूर जाने के बाद
मनोहर को पेरूमाल टाकीज के सामने रोबोट फिल्म
का पोस्टर दिखाई दिया
“अरे इ त अपन यहाँ के
हेरोइन लागे ला, जीतनवा"
"अबे इ ऐशवरया राय है,
तोहार फेवरेट हीरोइन"
"
देखों हमार तो ऐशवरया
राय कह:, मधुरी दीक्षित कह: सब फेवरेट हीरोइन बा " मनोहर ने
कहा.
"तब गरम मसाला सिनेमा
के बारे में का विचार बा” जीतन ने पूछा
"जीतनवा तू ना मानब,
चल जल्दी चल बस पकडे
के है की नाहीं” मनोहर ने कहा.
बस नागरकोइल को छोड़
कर किलिपारा के लिए चल पड़ी है. हवा धीरे धीरे चल रही है. आगे की सीटों पर बैठी हुई महिलाओं के बेला के गजरे
की खुशबू हवा के झोंके के साथ पुरे बस में
फ़ैल रही है. रात के समय बस की खिडकी से चाँद को भागते हुए देखा जा सकता है. मनोहर ने जीतन को भागते
हुए चाँद के तरफ इशारा करके दिखाया.
“अपनों घरे गावं में
यही चाँद होई, यहों अतने खूबसूरत बा, बुझली जीतनवा”
तभी पीछे से एक आदमी ने कहा "हिंदी"
"हाँ हिंदी, आपको भी हिंदी पता"
"मालूम है, थोरा थोरा मालूम. पहले
बोम्बे में काम करता. वहीं पर थोरा थोरा सिखा. वहां दंगा फसाद शुरू हुआ तो अरब चला
गया. कल ही लौटा"
एक तालाब में चाँद
का प्रतिबिम्ब चांदी सा झलक रहा है. तभी कुछ हलचल हुई और चाँद का प्रतिबिम्ब हजारों
भागों में विभक्त होकर कभी फिर से पूरा चाँद बनने की कोशिश करता तो कभी कभी हजारों छोटे चाँद से
बनी तश्तरी बना देता.
"हमरा भी एक दोस्त
मुरुगन अरब में काम करता है. बहुत दिन से उसका कोई पता नहीं. आपको उसके बारे में मालूम"
"अरब में किस
मुल्क में काम करता, मैं तो मिस्र में काम करता. वहाँ लड़ाई
शुरू हो गया. किसी तरह जान बचा कर भागा "
"नहीं मुल्क तो नहीं
पता" मुरुगन ने उत्तर दिया.
तभी बादल का एक टुकड़ा
आया, उसने चाँद को अपने आगोश में ले लिया.
1गरम चाय, 2
दो , 3 आगे चलो, 4 बारसठ रुपए,
5 नहीं नहीं ( ना ना )
मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012
पापा
पापा के नाम....ये कविता!
ये टुकुर टुकुर क्या देखती हो?
अच्छा चलो, एक खेल खेलते हैं...तुम मझे देखती रहो, मैं तुम्हे...
और इन काली बड़ी आँखों में तुम्हारी, खो जाऊं मैं.....
अरे! तुम तो हँसने ही लगी..बदमाश!!
इन किलकारियों पर तो जान न्योछावर मेरी..
एक तरफ है दुनिया, और दूसरी तरफ तुम्हारा ये चेहरा ...
लगता है सब छोड़-छाड़ के, बीएस तुम्हे ही देखता रहूँ दिन भर...
ये टुकुर टुकुर क्या देखती हो?
अच्छा चलो, एक खेल खेलते हैं...तुम मझे देखती रहो, मैं तुम्हे...
और इन काली बड़ी आँखों में तुम्हारी, खो जाऊं मैं.....
अरे! तुम तो हँसने ही लगी..बदमाश!!
इन किलकारियों पर तो जान न्योछावर मेरी..
एक तरफ है दुनिया, और दूसरी तरफ तुम्हारा ये चेहरा ...
लगता है सब छोड़-छाड़ के, बीएस तुम्हे ही देखता रहूँ दिन भर...
या फिर इस पल को सदा के लिए थाम लूँ..
तुम्हे पता है, तुम्हारे ये गोल-मटोल गाल मेरे जैसे हैं..
और बड़ी बड़ी ये आँखें बिलकुल तुम्हारी माँ जैसे....
उफ्फोह...अब अंगूठा निकाल भी लो मुँह से..
भूख लगी है तो बताओ न!....दूध कि बोतल यहीं तो है..
अब चलो, सोने का वक़्त है..
आ जाओ मेरे सीने में, लोरी सुनाता हूँ तुम्हे...राजकुमारी वाली!
और जब मैं चला जाऊं, माँ को ज्यादा परेशान मत करना...समझी!
अब आराम करो, शाम को फिर से खेलेंगे...सो जाओ राजकुमारी......सो जाओ....
तुम्हे पता है, तुम्हारे ये गोल-मटोल गाल मेरे जैसे हैं..
और बड़ी बड़ी ये आँखें बिलकुल तुम्हारी माँ जैसे....
उफ्फोह...अब अंगूठा निकाल भी लो मुँह से..
भूख लगी है तो बताओ न!....दूध कि बोतल यहीं तो है..
अब चलो, सोने का वक़्त है..
आ जाओ मेरे सीने में, लोरी सुनाता हूँ तुम्हे...राजकुमारी वाली!
और जब मैं चला जाऊं, माँ को ज्यादा परेशान मत करना...समझी!
अब आराम करो, शाम को फिर से खेलेंगे...सो जाओ राजकुमारी......सो जाओ....
रविवार, 14 अक्तूबर 2012
तरुणि-सौन्दर्य
खुले निहारे,बंद निहारे,यहाँ निहारे,वहाँ निहारे,बस मे नाही नैन हमारे!
तुम-सी मोहनी मूरत रच के , विधि ने अपने हाथ संवारे !
केश ललित काले घुंघराले, पवन-वेग मे मतवाले !
सागर की मौजो के जैसे, लेत लहरिया भर किलकारे!
तुम-सी मोहनी मूरत रच के , विधि ने अपने हाथ संवारे !
केश ललित काले घुंघराले, पवन-वेग मे मतवाले !
सागर की मौजो के जैसे, लेत लहरिया भर किलकारे!
नूर भरा निष्कलंक-स्वच्छ-जल सम, नैनो के 'मान-सरोवर' मे!
रति-पनिहारिन जल भरती नित , निज यौवन की गागर मे!
कोमल कपोल मुख कमाल की पांखें , भरी प्रेम संदेशो से!
नित प्रभात मे कली चटकती,जिसकी मुस्कान के आदेशो से!
यूँ तो आँखो मे अगणित बाते,पर लब पर आता जब जीवन का सुर!
कभी चपल चिड़ियो का कलरव , कभी कोकला-कूक मधुर !
जाने-अनजाने हिरनी ने , चाल तुम्हारी पाई है!
सहज नही है रत्न जवानी,यहाँ बहुत महेंगाई है!
सम्मोहन का जादू डाला , मुझ बसंत के दीवाने पर!
तितली-सी उड़ चली हवा मे,निष्फिकर चलाती अपने पर!
सादगी के सुंदर तटबंधो से , यौवन नदी उफान भरे!
मिलन खड़ा उस पार नदी के,नित हँसी करे,नित हँसी करे!
'परमानंद' काहे बौराना , कौन तुम्हारी फिकर करे!
सुंदरता के मोल बड़े है,दिल चाह करे या आह भरे!
रति-पनिहारिन जल भरती नित , निज यौवन की गागर मे!
कोमल कपोल मुख कमाल की पांखें , भरी प्रेम संदेशो से!
नित प्रभात मे कली चटकती,जिसकी मुस्कान के आदेशो से!
यूँ तो आँखो मे अगणित बाते,पर लब पर आता जब जीवन का सुर!
कभी चपल चिड़ियो का कलरव , कभी कोकला-कूक मधुर !
जाने-अनजाने हिरनी ने , चाल तुम्हारी पाई है!
सहज नही है रत्न जवानी,यहाँ बहुत महेंगाई है!
सम्मोहन का जादू डाला , मुझ बसंत के दीवाने पर!
तितली-सी उड़ चली हवा मे,निष्फिकर चलाती अपने पर!
सादगी के सुंदर तटबंधो से , यौवन नदी उफान भरे!
मिलन खड़ा उस पार नदी के,नित हँसी करे,नित हँसी करे!
'परमानंद' काहे बौराना , कौन तुम्हारी फिकर करे!
सुंदरता के मोल बड़े है,दिल चाह करे या आह भरे!
-परमानन्द
बुधवार, 10 अक्तूबर 2012
कवि की पीड़ित खुफिया आँखें - Uday Prakash
हत्यारे ने उस औरत को मारने में दो मिनट लगाए
उस पर दो शताब्दियों तक चलता है मुकदमा
जिसने सार्वजनिक कोष से साफ़-साफ़ उड़ा लिए सैकड़ों करोड़ रुपये
उसकी सत्तर साल तक जांच करता है जांच आयोग
कोई किसी से पूछता है, क्यों यह समय इतना निरपेक्ष और किसी
अक्षम्य पाप जैसा है
जब नहीं सुनता कोई किसी की बात तो एक उपेक्षित कवि
अपने कान समूची पृथ्वी पर लगाता है
हर अँधेरे में सुलगती हैं उसकी पीड़ित आत्मा की खुफिया आँखें
अप्रासंगिकताएं क्यों हावी हैं इस कदर तमाम अच्छी और ज़रूरी चीज़ों पर
जो ठीक-ठाक हैं और जो चाहिए तमाम लोगों को
उनका विज्ञापन क्यों नहीं दिखाई देता कहीं ?
उनकी कोई कीमत क्यों नहीं बची, कुछ बताएंगे आप ?
एक छोटी-सी जेब में समा जाने वाली कंघी,
खैनी, राई, अरहर और गुड के लिए
अपने कपडे क्यों नहीं उतारतीं मधु सप्रे और अंजलि कपूर
बीडी के बण्डल का रैपर क्यों नहीं बनाते अलेक पदमसी
वो कौन हैं जिनके लिए है इतना सारा उद्योग
रात भर कई सालों से गिरती हैं आकाश से सिसकियाँ और खून
स्वप्न चुभतेहैं उसके तलवों में जो भी इस समाज से गुज़रता है
एक गरीब धोबी जो टैगोर हो सकता था
सारे शहर के कपडे धोता है आधी रात अपने आंसुओं से
एक स्त्री जोर-जोर से हंसती है अपनी ह्त्या के ठीक एक पल पहले
कोई विश्वास होता है हर बार, जिस पर घात होता है हर बार
सबलोग यह जानते हैं पर खामोशी ही लाजिमी है
जो व्यक्त करता है यथार्थ को
वह मार दिया जाता है अफवाहों से |
- Uday Prakash
('रात में हारमोनियम', १९९८, वाणी प्रकाशन)
मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012
मेहंदी
हथेली पर मेहंदी का कोण चलाते देख
मुझे याद आती है
कोने वाली मिठाई की दूकान पर
उबलते घी में छनछनाती जलेबियाँ..
उसी तरह जलेबियाँ बिखेरती तुम
गोरे-गोरे, नरम हाथों पर..
बीच बीच में चख लेती मेहंदी को
जैसे हलवाई चखता है जायका जलेबी का..
मैंने भी चख के देखा
कडवी लगी,
चाशनी में डूबी हुई जलेबी खानी पड़ी..!!
मेहंदी के खर जाने पर
हाथों की लकीरों को जैसे
मिल गया हो साथ फूल पत्तियों का..
और हक जताती चढ़ जाती कोहनी तक..
अंगुली की टपोरियां रंगी हुई,
कहीं कलश तो किसी कोने में
अपने साजन का नाम लिखे..
सौंदर्य को परिपूर्ण करती मेहंदी..
अब समझ में आया..
क्यूँ मीठी लगती है मेहंदी..
उसके हाथों को देख
मुँह में चाशनी सा स्वाद लगने लगा...!!
- कन्हैया (कनु)
सोमवार, 8 अक्तूबर 2012
अस्तित्व का अभिप्राय
कुछ गुमसुम सी थी मैं, थी कुछ हैरान सी ...
कुछ थी कशमकश में,ज़रा ज़रा परेशान सी ...
पर पल भर में ना जाने कहाँ से मेरी अक्स मेरे सामने आ खड़ी हो गयी ....
पूछने लगी कि भला इस प्यारी सी दुनिया ने ऐसा क्या कर दिया
कि मैं हूँ ऐसी चुपचुप बुझी -बुझी सी ...
तो बोली मैं कि सोचती हूँ शायद कुछ ज्यादा ही कभी -कभी...
तो बस ऐसे ही सोच रही थी अपने अस्तित्व के बारे में
कि क्या हूँ मैं ,क्यूँ हूँ मैं ,आखिर हम से से हरेक क्यूँ ही है!
तो वह मंद मुस्कराहट अपने अधरों पर खिलाये बोली -
तो तू इस गुत्थी में उलझी हुई है स्पर्श!!
जीवन के अर्थ को ढूंढती तू ,इसके अभिप्राय को खोजती तू
फिर कुछ धीमे से बोली कि उस सर्वव्यापी का ही तो है अंश;
मैं बोली कि अरे वो तो मैं जानती हूँ खूब
पर आखिर मुझे इस धरती पर भेजा ही क्यूँ गया
तब बोली वह रे अधीर !
हर एक को भेजा है भगवान् ने किसी हेतु के लिए
उस आत्मा की शक्ति को देखते हुए
उस आत्मा की काबिलियत को परखते हुए ,
उसने दिए हैं हरेक को काम कुछ ख़ास !
जिसे पूरा करना ही है उसे
कर्मों के इस सदैव गतिमान चक्र को गति भी देना है उन्हें
सृष्टि के आरंभ से जो चली आ रही है
वह अनंत प्रवाहमान कर्म-सरिता ही इस आत्मा को ले जाती है जन्म -जन्मान्तर की यात्रा पर
जो किया है उसका फल तो मिलना ही है उस आत्मा को
खुद अवतार रूप में आके भगवन भी नही रहे इससे इससे अछूते
जो भी किया उन्होंने किया मानव होने के बूते
क्यूंकि सृष्टि का यह आवर्तन जिस क्षण गया रुक
तब विनाश ही विनाश होगा सब ओर
उसके इस एकलाप को मैं सुन रही थी एकदम ध्यानमग्न होकर
पर मुखमंडल पर था एक संतुष्टि का भाव
पर शायद मेरी जिज्ञासु प्रवृत्ति मुझे अभी भी कहीं न कहीं रोक रही थी
और मेरे माथे पर पड़ी सलवटें और मेरी धीरे से भरी गयी हामी
शायद इसी की साक्षी दे रहे थे ....
कुछ पूरा हुआ तो कुछ बाकी रहा यह कौतूहल कि
भला क्या है मेरे अस्तित्व का अभिप्राय !
कवि को तो वही समझता है .....
कवि को तो वही समझ सकता है जो,
भावों को गुनना जानता हो;
कविता के मर्म को जाने पढना जो,
कवि और कविता के मन की गहराईओं में झांकना हर किसी के बूते की बात भी नही !
क्यूंकि कविता तो वही समझता है जो शब्दों की आत्मा तक पहुंचना जानता हो !!
शनिवार, 6 अक्तूबर 2012
गज़ल
तेरी गली के मोड पर,
खुद को बेज़ार पाता हूँ,
जिल्लतें रोज़ मिलती है ... फिर भी हर बार आता हूँ,
जीते जी जिन्हें कभी,
इक खुशी ना दे सका,
फूल चढाने अब उनकी ... मजार जाता हूँ|
हारी ना जंग कोई,
सीधे सामना सबका,
खुद को बेज़ार पाता हूँ,
जिल्लतें रोज़ मिलती है ... फिर भी हर बार आता हूँ,
जीते जी जिन्हें कभी,
इक खुशी ना दे सका,
फूल चढाने अब उनकी ... मजार जाता हूँ|
हारी ना जंग कोई,
सीधे सामना सबका,
तेरी नज़रों से नहीं लड़ता ... उनसे हार जाता हूँ|
'मैडम' के आदेश बिना,
जुबां तक नहीं चलती,
'जनता' मेरी लाचारी देखो ... सरकार चलाता हूँ|
सम्मान-ट्रोफी-तमगों से,
घर पटा पड़ा लेकिन,
भूखा अक्सर सोता हूँ ... सितार बजाता हूँ|
'मैडम' के आदेश बिना,
जुबां तक नहीं चलती,
'जनता' मेरी लाचारी देखो ... सरकार चलाता हूँ|
सम्मान-ट्रोफी-तमगों से,
घर पटा पड़ा लेकिन,
भूखा अक्सर सोता हूँ ... सितार बजाता हूँ|
शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2012
मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012
चरसी... (Vaibhav D Sambre)
मैं तो ठहरा चरसी...
मुझे बाकी दुनिया से क्या काम...
पीछे छुट गए अब सब..
साम दंड भेद और काम..
मैं तो ठहरा चरसी...
मुझे बाकी दुनिया से क्या काम...
था वो जोश जवानी का..
या था मेरा खून गरम...
या शायद उस जिंदगी से..
हार गया था मेरा मन...
हाथ में ली थी मैंने चीलम..
उस धुंए से मिला था मुझे..
एक अजीब सा जोश और आराम..
मैं तो ठहरा चरसी...
मुझे बाकी दुनिया से क्या काम!
वजह मिलती रही..
मौके बढ़ते रहे...
एक बार में छोड़ने के वादे..
उस धुंए में ही घुलते रहे..
शायद उन दोस्तों में हो रहा था..
ऊँचा मेरा नाम...
मैं तो ठहरा चरसी...
मुझे बाकी दुनिया से क्या काम!
कुछ दिनों बाद ये एहसास हुआ..
बिना धुंए के जीवन निरास हुआ..
कहीं ना अब लगता था मन..
नशे बिना मुश्किल हुए नित्य कर्म..
चाहे अनचाहे बन बैठा मैं..
उस नशे का गुलाम..
मैं तो ठहरा चरसी...
मुझे बाकी दुनिया से क्या काम!
क्या हुआ जो अब..दोस्त चले जाएँ बिन बतियाये...
क्या हुआ जो अब मैं दौड़ ना पाऊँ खुलकर..
क्या हुआ जो अब "वो" भी मुझे आँखे चुराए..
क्या हुआ जो अब अधूरा से लागे माँ का आँचल..
क्या हुआ जो अब कर दिया...मैंने जमीर नीलाम..
मैं तो ठहरा चरसी...
मुझे बाकी दुनिया से क्या काम!
अपनी नज़रो में गिर कर ही तो..
शायद ऊँचा किया है मैंने अपना नाम..
मैं तो ठहरा चरसी...
मुझे बाकी दुनिया से क्या काम!
कभी कभी मन से..
ये जिजीविषा उठती है कि...
वापस आ जाये वो पहली घडी...
और कर दूं उस चीलम को नकारा
क्योंकि..
वापस आना चाहता हूँ...ये धुआं मुझे रोक रहा..
वापस जीना चाहता हूँ..ये फंदा मुझे बाँध रहा...
बनना चाहता हूँ वो बेटा...पापा को जिसपे गर्व रहा..
बनना चाहता हूँ वो भाई..बहन का जो दुलारा रहा..
मैं तो ठहरा चरसी यारों...हाथ तो बढ़ाना जरा..
मैं तो ठहरा चरसी यारों..दुनिया से रूबरू करना जरा..
मैं तो ठहरा चरसी यारों..तनिक जीना मुझे सिखाना जरा..
तनिक जीना मुझे सिखाना जरा!!!
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