रविवार, 30 सितंबर 2012

नाराज़गी




तुम्हारी नाराज़गी ... उफ़्फ़ !
घटा देती है खूबसूरती तुम्हारी |
समझने में ये तुम्हे,
लगे शायद कुछ और दिन ।

चैत के महीने में पावस की तरह,
अंकतालिका में गणित के अंकों की तरह,
या नगरपालिका के बाग़ में उगी खरपतवार की तरह;
नहीं फबती तुम पर ये, कतई !

दे कर खुद को दोष,
ईश्वर की सृष्टि को कम सुन्दर कर देने का,
भर जाता हूँ, अन्दर तक ग्लानि से उतना;
जितना हुआ करता था,
गर्मी की छुट्टियों में होमवर्क न कर पाने पर !

मत होना यों अगली दफ़ा नाराज़
ज्यों पड़ जाती हैं सिलवटें शर्ट पर
ताकि ना लिखनी पडे,
मुझे एक और कविता,
तुम्हारी नाराज़गी के प्यार में पड़कर !

- जय

शनिवार, 29 सितंबर 2012

शेर

वो हालातों के आगे डर गयी..
अपना प्यार खुद ही रुसवा कर गयी ...
बनी थी मंजिल मेरी कश्ती की वो
मुझको ही तूफानों के हवाले कर गयी...

-श्याम सुन्दर 

गुरुवार, 27 सितंबर 2012

ज़िंदगी और मौत


वो ज़िंदगी ही क्या जो किसी के काम ना आए...
                  वो मौत ही क्या जो अख़बार मैं ना आए...
                                                   - निखिल शर्मा

मंगलवार, 25 सितंबर 2012

एक मुलाक़ात मेरी मुझ से ......

       
            
होठों को गुनगुनाने को मिल गये हों तराने जैसे ...
आप ही बतियाने को मिल गये हों चंद अलफ़ाज़ जैसे ...
फुर्सत के कुछ पल बिताने को मिल गये हो जैसे....
बरबस ही खिलखिलाने सा लगा मन आजकल जैसे....
कोई अधूरी ख्वाहिशें हों गयी हों मुक्कमल जैसे....
बादलों के साथ कहकहे लगाने को दिल करे जैसे....
वक़्त की दौड़ में खुद को ही मिल गयी हूँ जैसे....
ज़िन्दगी से ज़िन्दगी की मुलाक़ात हुई हो जैसे....
मुद्दतों बाद इत्मीनान से कुछ बात हुई हो जैसे.....
दिल लगा हो खुद की ही उधेड़बुन में जैसे
किसी मीठी सी प्यारी सी कोशिश में हो जैसे.....
न हो कोई रुकावटें ,न ही दीवारें ....बस ऐसा ही एक खुला आसमाँ हो जैसे .....
मदमस्त होकर यूं ही उडती रहूँ में ....
अपने ही एक शहर में ....अपनी ही एक डगर पर.....चलती रहूँ मैं.....
छेड़ दिए हों सुर साज़ के किसी ने मानों.....
अपने आप से ही सवाल कर रही हूँ मैं......
तो कभी खुद से ही दे रही हूँ जवाब जैसे.....
जब सजे दिल की महफ़िल तो क्या हो ज़िक्र गम का......
जब थिरक उठे मन बिना घुंघरुओं के.....
तो इसे आँखों के बक्से में कैद कर लूँ जैसे.......
कि न जाने दूँ इन्हें अपने से दूर जैसे......
एक पल तो खौफ ने जकड़ने की कोशिश की मुझे....
कहीं एक ख्वाब तो नहीं.....
पर दी दस्तक मेरे मन पर
एक प्यारे से एहसास ने .....
क्यूँकी खुशियाँ कुछ तेरे हिस्से में हैं गर.....
तो एक हिस्सा मेरा भी है.....:)
तो कुछ ऐसे ही इक हुई नन्ही सी मुलाक़ात मेरी 'मुझ' से .....
कि मेरी कलम भी बहने लगी हो पानी के जैसे....
चलिए....मिलते हैं कभी और मुस्कुराते हैं ऐसे......:):)
 

 

 


सोमवार, 24 सितंबर 2012

वो मेरी तन्हाई थी



वहां  ना  तो  मैं  था , ना  वो  थी 
थी  तो  बस  कुछ  धुधलीं  धुधलीं   
काली  काली  परछाईयां
वैसे  जहां  भी  मैं  जाता  था 
वो  अक्सर  मेरे  साथ  होती  
और  कभी  कभी  लोगों  की  भीड़  में 
मुझे  अकेला  छोड़  जाती  थी 
वहां  भी  बस  लोगों  की  भीड़  ही  थी 
बहुत  से  अपरिचित  लोगों  की  भीड़ 
बहुत  मुश्किल  था 
खुद  से   परिचय  कर  पाना 
उसकी  जिद  पर  ही  मैं  वहां  गया 
पर  वो  खुद  आई  ही  नहीं  वहां 
शायद  उसकी  प्रकृति  ही  ऐसी  थी 
वह  डरती  थी  भीड़  से 
मुझे  भी  बहुत  डर  है 
इस  भीड़  में  खो  जाने  का 
इस  अपार  जन  समूह  में 
कुछ  गा  रहे  हैं  कुछ   रो  रहे  हैं 
कोई  जूझ  रहा  है  कोई  सो  रहा  है 
अजीब  सी  चीखें  भी  सुनाई  दी 
हर  कोई  बस  अपनी  धुन  में  था 
मैं  भी  इस  भीड़  में  
अपने  को  ही  पहचान  ना  पाया 
मुझसे  मेरा   परिचय 
करने  वाली  ही  नहीं  थी 
तभी  तो  मैं  कह  रहा  हूं 
वहां  ना  मैं  था , ना  वो  थी 

-योगेश बिचपुरिया

मौत से ठन गई :श्री अटल बिहारी वाजपेयी



ठन गई!

मौत से ठन गई!

जूझने का मेरा कोई इरादा न था,
मोड़ पर मिलेंगे इसका कोई वादा न था,

रास्ता रोककर वह खड़ी हो गई ।
यों लगा जिंदगी से बड़ी हो गई।

मौत की उम्र क्या दो पल भी नहीं,
जिंदगी-सिलसिला, आज कल की नहीं,
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं,
लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं

तू दबे पाव, चोरी-छिपे से न आ,
सामने वार कर, फिर मुझे आजमा,
मौत से बेखबर, जिंदगी का सफर,
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।

बात ऐसी नहीं कि कोई गम ही नहीं,
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं
प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
न अपनों से बाकी है कोई गिला।

हर चुनौती से दो हाथ मैंने किए,
आंधियों में जलाएं हैं बुझते दिए,

आज झकझोरता तेज तूफान है,
नाव भंवरों की बाहों में मेहमान है।

पार पाने का कायम मगर हौसला,
देख तूफां का तेवर तरी तन गई,
मौत से ठन गई!!





(अटल जी की एक बेहतरीन कविता, जो उन्होंने घुटनों के ओपरेशन के पश्चात लिखी ... शुक्रिया विकास)


श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी-

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

गीत अगीत : रामधारी सिंह 'दिनकर'




गाकर गीत विरह की तटिनी


वेगवती बहती जाती है
दिल हलका कर लेने को
उपलों से कुछ कहती जाती है।
तट पर एक गुलाब सोचता
"देते स्‍वर यदि मुझे विधाता
अपने पतझर के सपनों का
मैं भी जग को गीत सुनाता।"
गा-गाकर बह रही निर्झरी
पाटल मूक खड़ा तट पर है।
गीत अगीत कौन सुंदर है?
 



बैठा शुक उस घनी डाल पर
जो खोंते पर छाया देती।
पंख फुला नीचे खोंते में
शुकी बैठ अंडे है सेती।
गाता शुक जब किरण वसंती
छूती अंग पर्ण से छनकर।
किंतु शुकी के गीत उमड़कर
रह जाते स्‍नेह में सनकर।
गूँज रहा शुक का स्‍वर वन में
फूला मग्‍न शुकी का पर है।
गीत अगीत कौन सुंदर है?
 



दो प्रेमी हैं यहाँ एक जब
बड़े साँझ आल्‍हा गाता है
पहला स्‍वर उसकी राधा को
घर से यहाँ खींच लाता है।
चोरी-चोरी खड़ी नीम की
छाया में छिपकर सुनती है
'हुई न क्‍यों मैं कड़ी गीत की
बिधना' यों मन में गुनती है।
वह गाता पर किसी वेग से
फूल रहा इसका अंतर है।
गीत अगीत कौन सुन्‍दर है?

बुधवार, 19 सितंबर 2012

लापता जिंदगी..



चश्मे के डब्बे में आँखे रख़ कर
चश्मा पहन मैं निकला घर से..
जूते पहनने के बाद ख़याल आया,
पैर तो भूल आया पिछले ही रास्ते में..!!
छींक आते आते रुक गयी
आँख खुली की खुली रह गयी..
नाक पे हाथ गया तो याद आया,
नाक तो घर पे टंगे पतलून की जेब में रखे
उस सफ़ेद रूमाल में रह गयी..!!
कुछ कहने लगा फुसफुसा कर,
किसी को उसके कान में 
आवाज़ का ढूंढे पता नहीं लगा,
लगता है रह गयी फोन के रिसीवर में..!!
लिखने के लिए पेन टटोला 
कमीज की जेब में,
पर सिवाय डायरी के कुछ ना मिला,
लगता है लिखते लिखते कागज़ में गुम हो गया..!!
मैं मौजूद हूँ किसी महफ़िल में..
हाथ-मिलाते, गपियाते, हँसते-मुस्कुराते..
अचानक याद आया बाथरूम में जिसे छोड़ आया था
उसकी कितनी शकल मिलती थी मुझसे...!!!

- कन्हैया (कनु)

नहीं क़बूल























हमें नहीं क़बूल शान्ति और प्रेम का जीवन,

हम युद्ध के देवता पूजते हैं.

हमारे देव हिंसक हैं और वे हमें

बाँट कर खाने के बजाय छीन कर खाने का आदेश देते हैं.


मंगलवार, 18 सितंबर 2012

हिंदी - राष्ट्र भाषा ( भाग - एक)..


हिंदी - राष्ट्र भाषा ( भाग - एक)..

हिंदी भाषा का प्रादुर्भाव कब कैसे हुआ , इसको जानने के लिए हमको शुरुवात संस्कृत के इतिहास से करनी होगी|

हिंदी साहित्य को यदि आरंभिक, मध्य व आधुनिक काल में विभाजित कर विचार किया जाए तो स्पष्ट होता है कि हिन्दी साहित्य का इतिहास अत्यंत विस्तृत व प्राचीन है। सुप्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक डा . हरदेव बाहिरी के शब्दों में, 'हिन्दी साहित्य का इतिहास वस्तुतः वैदिक काल से आरम्भ होता है। यह कहना ही ठीक होगा कि वैदिक भाषा हीहिंदी है। इस भाषा का दुर्भाग्य रहा है कि युग-युग में इसका नाम परिवर्तित होता रहा है। कभी 'वैदिक', कभी 'संस्कृत " कभी 'प्रकृत', कभी 'अपभ्रंश' और अब -हिंदी। हिंदी साहित्य के इतिहास को खंगालने का श्रेय गार्सा ता तासी को जाता है लेकिन चूँकि उन्होंने भारत में रहकर ज्यदा अध्ययन नहीं किया इसलिए हम उनके अद्ययन को अधिक प्रमाणिक नहीं मान सकते लेकिन ये कहना गलत नहीं की उन्होंने भारत से दूर बैठकर यहाँ का इतिहास का अद्ययन किया और लेखकों के कालक्रम का प्रकाशन किया | डा गिएर्सन ने अपनी किताब "The Modern Vernacular Literature of Hindustan " के लिए भारत की गलियों बाज़ारों को छाना, उन्होंने अपनी पुस्तक में शिव सिंह सरोज (७०० इसवी ), एक राजपुताना लेखक, को उद्धृत किया है और उनके साहित्य  प्रमाणिक जानकारियां तथ्य जुटाए , लेकिन अपने अद्ययन के लिए गिएर्सन केवल सेंगर पर निर्भर नहीं रहे .. गिएर्सन अपनी पुस्तक में लिखते है " The earlier rajput bards wrote in time of transition , in a  language which it would be difficult to define accurately , late Prakrit."  हालाँकि इस अद्ययन में गिएर्सन ने प्राचीन संस्कृत को शामिल नहीं किया है लेकिन ये माना है हिंदी लेखक अपने संस्कृत अग्रजों की भाषा को अपनाते है , गिएर्सन लिखते है " To the mere student of language the Padmawat possesses,by a happy accident , inestimable value.Composed in the earlier portion of the 16th century,it gives us the representation of speech and of the pronunciation of those days.Hindu writers tied with the fetters of custom , were constrained to spell their words,not as they were pronounced , but as they were written in the old Sanskrit of their forefathers. 
उपरोक्त तथ्यों से ये तो साफ़ लगता है की आधुनिक हिंदी की शुरुवात भले सिब सिंह सरोज के साथ से शुरू हुई हो लेकिन हर्षवर्धन काल का बाद हिंदी प्रचलित हो चुकी थी .. और ये भी तथ्य प्रस्तुत किया जा सकता है अब की हिंदी प्राकृत से मिलती जुलती भाषा थी जो की संस्कृत की बोल चाल की भाषा थी |
संसार का पहला ग्रन्थ ऋग्वेद को माना गया है , संभव है पूर्व ब्रह्मावर्त (भारत,बंगलादेश ,अफगानिस्तान & पाकिस्तान ) में और भी कोई प्रचलित भाषा रही हो लेकिन उनका कोई साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध नहीं है| सिधु सभ्यता में कई भाषाएँ और लिपियाँ प्रचलित थी जो मोहनजोदड़ो (पाकिस्तान) की खोदाई मिली लेकिन उनको अभी तक पड़ा नहीं जा सका है | लेकिन ये कहा नहीं जा सकता की इनका संस्कृत से कोई सम्बन्ध था क्यूंकि संस्कृत आर्यों की भाषा थी और सिन्धु सभ्यता पूर्व वैदिककालीन थी | शायद वैदिक संस्कृत ही आर्यों की सबसे प्राचीन भाषा थी|
ऋग्वेद को वैदिक संस्कृत में लिखा गया लेकिन जैसे जैसे समय बदला भाषा बदलती गयी सभी ब्रह्माण ग्रन्थ जो की वेदों का ही गद्य रूप थे लौकिक संस्कृत में लिखे गए | ये लौकिक संस्कृत  द्वीजी कहलाई . द्विज ब्रह्मण या विदवान को कहा जाता है इस आधार पर कहा जा सकता है की ये केवल विद्वानों और पंडितों की भाषा थी जबकि बोल चाल की भाषा दूसरी थी कारण बोलने की आसानी|डा चन्द्र बलि पाण्डेय ने इस भाषा को मानुषी कहा है | डा धीरेन्द्र वर्मा भी कहते है  " पतंजलि के काल में व्याकरण आधारित संस्कृत बोलने वाले विदवान कम ही थे जबकि प्रचलित भाषा व्याकरण आधारित नहीं थी , जो कालान्तर में प्राकृत कहलाई ". डा चन्द्र बलि पाण्डेय भी मानते है की भाषा में विकृति आ चुकी थी जिसे उन्होंने वालिमिकी रामायण का उदहारण देके समझाया जिसमे हनुमान जी सीता माँ से अशोक वाटिका में द्वीजी में न वार्तालाप कर प्राकृत में बात चीत करते है |
 डा राम विलास शर्मा लिखते है " प्राकृत ने संस्कृत को हठात विकृत करने का नियम हीन प्रयत्न किया "| डा श्याम सुन्दर  दास मानते है " वेद कालीन कथित भाषा से ही संस्कृत उत्पन्न हुई , अनार्यों के संपर्क का सहारा पाकर अन्य प्रांतीय "बोलियाँ " विकसित हुईं |"

यह बात दीगर है की दीर्घकाल तक संस्कृत राष्ट्रीय भाषा रही भले ही उसके अपभ्रंस प्राकृत ने उसकी जगह ली | बुद्ध ने अपने उपदेश जनसाधारण भाषा में ही दिए जो प्राकृत थी , भले ही लोगों को व्याकरण का ज्ञान नहीं था पर फिर भी वो संस्कृत समझते थे बस उनको उच्चारन का पूर्ण ज्ञान नहीं था |कालिदास की रचनाओं में भी ये पायेंगे की जब विदवान बात करते है तो संस्कृत लेकिन जब दास - दासियाँ बात करते है तो प्राकृत का इस्तेमाल किया गया है | मक्स्मुलर , गिएर्सन , जोंस , गेटे , केथ आदि बहुत से पचायत लेखकों ने संस्कृत की समृद्धता का लोहा माना है और कहीं न कहीं इसके प्रभाव को अनन्य भाषाओँ पर स्वीकारोक्ति दी है |

डा श्याम चन्द्र कपूर ने प्राकृत भाषा को तीन कालों में बाटा है १) ५०० ईसा पूर्व से पहली ईश्वी २) पहली ईश्वी से ५०० ईश्वी ३) ५०० इश्वी से १००० ईश्वी .
इन सभी कालों में संस्कृत राष्ट्रीय भाषा ही रही हर्षवर्धन के काल तक| प्राकृत अपने पहले काल में पाली कही गयी दुसरे काल में इसे साहित्यिक प्राकृत भाषा कहा गया |
तीसरा काल में ये अपभ्रंश कहा गया जो हिंदी का प्रारम्भिक स्वरुप था| जैसा मैंने पहले ही कहा की शुरुवात शिव सिंह सरोज से हो चुकी थी जिन्होंने तत्कालीन भाषा का इतिहास लिखा और सरोज ने संस्कृत और प्रारंभिक हिंदी दोनों में लिखा है जो यह दर्शाता है की संस्कृत भी उस समय तक साहित्यिक और प्रचलित भाषा थी |

प्राकृत के ६ रूप(बोली) प्रचलित थे मागधी , अर्धमागधी , शौरशेनी,महाराष्ट्री , पैशाची और व्र्चाद | मागधी आर्यावर्त (भारत , पाकिस्तान & बंगलादेश ) के सोलह जनपदों में से  मगध,वज्जि,मगध और अंग  जनपद के आस-पास बोली जाती थी|बिहारी,बंगला,उड़िया, असमिया आदि भाषाएँ मागधी की आधुनिक भाषाएँ है |  
अर्धमागधी कोशल,काशी,वत्स और मल्ल जनपद की भाषा थी , इसकी आधुनिक भाषाएँ वो सभी भाषाएँ है जो आज के उत्तरप्रदेश ,झारखण्ड ,हरियाणा , मध्यप्रदेश में बोली जाती है | शौरशेनी शौरशेन , मतस्य ,पंचाल और कुरु जनपदों में बोली जाती थी,राजस्थानी,गुजराती , पहाड़ी भाषाएँ इसी भाषा का रूप है | शौरशेनी का नया रूप मराठी , पैशाची का नया रूप लहंडा और पंजाबी और सिन्धी व्र्चाद का वर्तमान रूप है |आज की प्रचलित खड़ी बोली शौरशेनी का ही रूप है |
 धीरे धीरे इन बोलियों का विघटन शरू हुआ उनसे कई उपशाखाएँ निकली| लेकिन इन सभी में संस्कृत के ही मूल तत्व थे एक प्रकार से यह कहा जा सकता है जैसे आज हिंदी की कई बोलियाँ है वैसे ये सारी शाखाएं संस्कृत की बोलियाँ थी |
अपभ्रंश भाषा के एक दोहे का उल्लेख करना चाहूँगा
"चलिअ वीर हम्मीर पाअभर मेईण कम्पि.
दिग्मग णह अंधार धुरि सुर रह  अछ्छाहीं "
कोई भी आज की हिंदी बोलने वाला हो उसको भले ही कठिनाई हो लेकिन ये दोहे का अर्थ उसको समझ में आ जायेगा|और यही हिंदी का प्रारंभिक रूप है जो कि आज प्रचलित है | इस प्रकार हम बात दो तरह से कह सकते है पहला हिंदी संस्कृत का ही अपभ्रंश है जो हजारों साल तक हम तक पहुँचते - २ टूटती हुई पहुंची है दूसरा ये की भले ही हिंदी अपभ्रंश  हो लेकिन फिर भी ये ८०० साल से ज्यदा पुरानी भाषा हो चुकी है | अगर आज के समय में कोई भी यह कहता है कि ये भाषा इतने हज़ार साल पुरानी  है तो में नहीं मान सकता इसका कारण है भाषा का अप्भ्रन्शन जो की लोग अपनी सुविधा अनुसार करते ही है |

आलोचक कह सकते है की  हिंदी और संस्कृत में जमीन आसमान का फर्क है| तो ध्यान योग्य बात ये है की हिब्रू , रुसी, चीनी ,तमिल और जर्मन जिन्हें बहुत ही पुरानी भाषा कहा गया है , उनके भी प्राचीन और वर्तमान स्वरुप में जमीन - आसमान का अंतर है , बस फर्क इतना है की हम जब उनके इतिहास को पढते है तो आदि , मध्य और प्रारंभिक काल मे बाँट कर पढते है |जबकि हिंदी के सन्दर्भ में हर काल में नया नाम दे दिया जाता है , जैसे हिंदी का ही रूप अवधी , भोजपुरी , बिहारी और बहुत सी बोलियाँ है लेकिन अब उनको एक अलग दर्जा प्राप्त है |

अगले भाग में एह चिंतन प्रदर्शित किया जायेगा की क्या हिंदी को भारत की राष्ट्र भाषा होनी चाहिए या नहीं ......

सन्दर्भ  :
१) हिंदी साहित्य के पहले इतिहासकार - गार्सा दा तासी
२) The Modern Vernacular Literature of Hindustan - George Abraham Grierson
३) हिंदी साहित्य का इतिहास : आर्चाय राम चन्द्र शुक्ल
४) हिंदी साहित्य - डा धीरेन्द्र वर्मा
५) हिंदी साहित्य का आदिकाल - हजारी प्रसाद दिवेदी
६ ) केन्द्रीय हिंदी निदेशालय 

प्रश्नचिन्ह



पानी की लहर सतत आगे बढ़े जा रही थी. जहाँ लहर जमीन को अपना अंतिम प्रणाम कह के फिर किसी और लहर में मिलने को लौट जाती थी, मैं वहीँ पानी के सहारे सहारे लेटा हुआ था. अचानक से एक जोर से लहर आयी और मुझे पूरा झकझोर दिया. उठा तो खुद को बालकनी में आराम-कुर्सी पे बैठा पाया. उफ़..!! ये सपने भी, कभी कभी इतना दहका देते है कि जान हलक तक आ जाती है. आँखे मलते हुए मैंने सामने की छत पर देखा. सामने दो खम्भों के बीच प्लास्टिक के तार बंधे हुए थे, जो हमेशा कपड़ो से लदे रहते थे. आज पता नहीं क्यूँ वो तार खुश लग रहे थे. मद्धम-मद्धम हवा के साथ हिचकोले खा रहे थे. नित-रोज वो कपड़े धूप को उन्ही तक रोक लेते थे और अड़ोस-पड़ोस के घर ऐसे बने हुए थे कि हमारे घर की बालकनी तक तो धूप आ ही नहीं पाती थी. सर्दी में धूप सेकने के लिए फिर हमें भी छत पर जाना पड़ता था. आज उन कपड़ो की गैर-मौजूदगी में कुछ मील दूर शहर की पहरेदारी करते उन पहाड़ों पर नज़र गयी. सुबह हौले-हौले से पहाड़ों पर उतर रही थी. धीमे से ना जाने कब मेरी पलकों पर चढ़ गयी और मेरी नींद को तहस-नहस कर दिया.

बेटा रोहन”..!! काल्पनिक और वास्तविक दुनिया में उलझा हुआ था और पिताजी की आवाज़ आयी. जी आया पिताजी”.. मैं अभी कुर्सी से उठा ही था कि वो बोले, “बेटा, सुबह-सुबह ताजे अखबार के साथ अगर तुम्हारे हाथ की बनी चाय की चुस्की लग जाती तो मेरी सुबह पूरी हो जाती”. पिताजी को मेरे हाथ की चाय बड़ी सुहाती थी. बड़े से बड़े, अच्छे से अच्छे रेस्तरां में ले जा के उन्हें महंगी से महँगी चाय पिलाई पर एक चुस्की के बाद कहते नहीं बेटा.. इसमें वो चाय का कडकपन और वो प्यार नहीं है जो तुम्हारे माँ के हाथों में था. ये कला तुम्हे उस से विरासत में मिली हैं..और मेरा सीना गर्व से चार गज का हो जाता.



जहाँ जायके की बात आ जाती वहाँ पिताजी को माँ की कमी का एहसास होता और चूँकि माँ मुझे जन्म देते ही इस संसार से विदा हो गयी तो मुझे तो माँ के बारे में कुछ पता ही नहीं था. बस तस्वीरों में माँ की आँखे, उनकी मुस्कराहट को बातो में ढाल कर मैं उनसे बाते किया करता था. माँ को अपनी कल्पना के बादलों में नहलाकर अनुमान लगाता था कि माँ ऐसी रही होंगी. थोड़े समय तक तो पिताजी ने मुझे मासी के पास छोड़ दिया ये सोच के कि इस नन्ही बिन माँ की जान को माँ का प्यार कैसे दे पाउँगा. परन्तु चंद महीनों में ही मेरे बिना वो रह नहीं पाए और मुझे अपने साथ ले आये. फिर जब से मुझे समझ आने लगी तब पिताजी का एकाकीपन मुझे इशारों-इशारों में पुकारता था. मैं घर के कामों में उनकी सहायता करने लगा. बीते बीस सालों में पिताजी ने मुझे कभी भी माँ की कमी नहीं खलने दी. हर एक बात में माँ को इस तरह ले आते थे कि जैसे माँ हमारे साथ ही हैं, और हमें देख रही है. अक्सर पिताजी कहा करते थे कि उसे मेरा इतना ख़याल था कि जाते जाते तुझ में वो सारे गुण और वो सारी बातें उड़ेल गयी कि मुझे कब क्या चाहिए और क्या नहीं.. उसे मेरी इतनी फिकर थी और कभी ये जानने की कोशिश नहीं की कि मुझे उसकी कितनी फिकर थी..और इतना कहते-कहते उनकी आँखों से आंसू की दो बूँद उनके गालों पर लुढक पड़ती. समानांतर मैं अपने सैलाब को अपनी आँखों में समेट कर माँ-पिताजी की उस तस्वीर में खुद को किसी कोने में खड़ा देखता.

"बेटा आज अदरक थोड़ी कम डालना. सुबह-सुबह मुँह कसैला हो जाता है तो दिनभर मुँह का स्वाद बिगड़ा रहता है." पिताजी भी ना, रोज-रोज नए प्रयोग कराते है. कभी शक्कर कम डालना, कभी चाय की पत्ती ज्यादा डालना. दो लोगो की चाय में चीनी कम-पत्ती ज्यादा कितना नाप-तोल के डालें, पर नहीं. चाय का स्वाद जैसा होता है वैसा ही होना चाहिए. पर पारखी को तो हर चीज में निपुणता चाहिए होती है क्यूँ कि वो खुद इतना निपुण है उस चीज में तो दुसरे से भी उतना ही उम्मीद करता है. जब जब भी मैं इस मामले में कोई गलती करता था, उसी वक़्त वो उनके ज़माने की सैर करा देते थे. वो मुझे बताया करते थे कि कैसे वो अपने ज़माने के पाक-शास्त्री थे. उनके सरे मित्र उनके हाथ के बने खाने के कायल थे. कॉलेज समय में सप्ताहंत में एक दिन पिताजी के नाम का होता था जब पिताजी खाना बनाया करते थे. माँ खुद इनके हाथ के खाने की बहुत बड़ी प्रशंसक थी. शादी के बाद माँ की फरमाइश पे उनकी पसंद का खाना बनता था. माँ जब भी रूठ जाया करती थी तो पिताजी का राम-बाण हुआ करता था ये. फिर पिताजी और माँ का रूठना मानाने का सिलसिला चालू होता. इन बातों में भी पिताजी  इतनी छौंक लगा के बताते थे कि मैं बस एकटकी लगाये उनकी बातों में खो जाता था.


मैं बचपन में अक्सर पिताजी से पूछा करता था कि क्या माँ इतनी निष्ठुर हो गयी थी कि अपनी खुद की जिंदगी का सौदा मेरी जिंदगी और आपकी जिंदगी के साथ कर बैठी. क्या उन्होंने ये नहीं सोचा कि उनके बिना आप अकेले कैसे जी पाएंगे..? और पिताजी उपर से बनते हुए मुझे समझाते कि बेटा, तुम्हारी माँ निष्ठुर नहीं थी. मुझे पता है उन नौ महीनों में तुझे कितने प्यार से पाला है, इतना प्यार कि शायद अगर वो जिंदा होती तो उम्रभर तुझे इतना स्नेह नहीं दे पाती..फिर हँसते हुए पिताजी कहते कभी कभी तो मुझे इर्ष्या होने लगती कि उसका प्यार अब हम दोनों में बंट रहा है.और ये कहते हुए पिताजी मुझे अपने कंधे पर उठा पूरे घर में घुमा घुमा के मुझे माँ के बारे में बताते थे. पिताजी में वो जादू था, बात को छेड़ कर तरह-तरह के मोड़ से गुजारते हुए इस तरह से गायब कर देते थे कि मुझे भनक भी नहीं लगती कब बात खतम हो गयी.



छन्न-छन्न की आवाज़ के साथ मेरी तन्द्रा टूटी तो देखा कि चाय उफन के गैस पे फ़ैल गयी थी. बरामदे से आवाज़ आयी  "क्या हुआ..?? फिर से चाय फैला दी. कोई सा तो काम ढंग से पूरा कर लिया कर."  इस से पहले कि पिताजी ये देखे मैं कपड़ा ढूंढने लगा. एक बार याद है मुझे जब पिताजी रसोई में खाना बना रहे थे और मैं उन्हें हाथ बंटाने के मकसद से आया था, पर तेल की कड़ाही में पानी गिर गया मेरे हाथ से फिर क्या था, सारा उबलता हुआ तेल पानी लगते ही ज्वालामुखी बन बैठा और लगभग पिताजी और मैं झुलसते झुलसते बचे. जैसे तैसे पिताजी ने कड़ाही को ठीक किया और पिल पड़े मुझ पर. और गुस्सा होना भी लाज़मी था, अभी जल जाते उस खौलते तेल से तो बैठे बिठाये लेने के देने पड़ जाते. और वो पहली बार था जब पिताजी का मुझ पर हाथ उठा था. जिस कोमल हाथ ने ना जाने कितनी बार मेरे गाल सहलाये थे, सर पर आशीर्वाद रखा था वही हाथ उस दिन पहली बार पत्थर से भी ज्यादा कठोर जान पड़ा और वो वज्र जैसा हाथ सीधा आके मेरे गाल पे लगा. मैं लड़खड़ाते हुए जैसे तैसे संभला, फिर गाल पर हाथ रखे वहीँ खड़ा हो गया. एक भी आंसू नहीं निकला मेरी आँख से, पर वो थप्पड़ गाल पर लगने से ज्यादा दिल पे लगा था. एक तो मैं उनका काम बाँटने गया और बदले में एक थप्पड़. हालांकि समझ की कमी ने मुझे उस वक़्त कुछ सोचने नहीं दिया. परन्तु उस समय के लिए एक गुस्सा सा पैदा हो गया था उस बाल मन में. कुछ दिन मैंने पिताजी से बात नहीं की. वो सुबह उठकर मेरा टिफिन तैयार करते और मैं बिना टिफिन उठाये ही स्कूल के लिए निकल लेता.  फिर पिताजी को शायद लगने लगा कि आवेश में आकर हाथ नहीं उठाना चाहिए था. और यहीं से सिलसिला चालू हुआ उनका मुझे मनाने का. स्कूल बस के बजाय मुझे स्कूटर पे छोड़ने जाते, लेने को आते, मेरी मन पसंद चीजे दोनों वक्त खाने में होने लगी. उन चंद दिनों में मैंने हर वो मिठाई पेट भर के खायी जो मुझे बहुत पसंद थी. मेरे बालमन को इस खेल में अब मजा आने लगा. पर पिताजी से कब तक नाराज़ रहता. कुछ ही दिनों में फिर से वही दोस्ती.

चाय को दो कपों में डाल के ट्रे में रख कर मेरी निगाहें बिस्किट ढूंढ रही थी. सब डिब्बे खंगाल दिए किसी में न मिले. कब से मन में ये डर था कि पिताजी चाय के लिए अब पूछेंगे- अब पूछेंगे. आखिरकार चाय ठंडी होने के डर से मैं बिना बिस्किट के ही रसोयी से निकल गया. पिताजी.. चाय ठंडी हो रही है..मैं हॉल में आते से पिताजी को आवाज़ लगायी. कोई प्रतिउत्तर नहीं मिला. उन्हें ढूंढती हुयी मेरी नज़रें इधर-उधर ताक रही थी. इतने में सामने वाली दीवार पे मेरी निगाह गयी. सामने पिताजी की तस्वीर फूलों के हार से सुसज्जित थी. ये देख के एक पल के लिए मेरी रगों में जैसे प्रलय आ गया हो. कुछ क्षण के लिए अपलक उस तस्वीर को निहारते हुए पिताजी के बारहवे के सारे पल मेरे मन-मस्तिष्क में डोले खाने लगे. आज पिताजी को इस दुनिया से गए हुए 12 दिन हो गए है पर ऐसा लगता है कि अभी भी मुझे रोज की सुबह की तरह चाय बनाने को कहते हो. रह-रह कर ये सवाल मेरे मन में उठ रहा था कि क्यूँ पिताजी.. आखिर क्यूँ.. मुझे आप इस दुनिया में अकेले छोड़ कर चले गए?? आप के सिवा था ही कौन मेरा यहाँ..? आप माँ को स्वार्थी कहते थे.. कि वो मेरे लिए आपको अकेला छोड़ के चली गयी. अब मैं आपको क्या कहूँ..?? जिस नन्ही जान को माँ आपके भरोसे छोड़ गयी थी, आप भी उसे इस तरह अकेला छोड़ गए, क्या मुहँ लेके जाओगे माँ के पास..??


ये सोचते सोचते वो सैलाब जिसे मैं बहुत देर से रोके बैठा हुआ था, फट पड़ा. माँ.. पिताजी को कुछ मत कहना माँ.. उन्होंने बखूबी मेरा खयाल रखा. इन 20 सालों में मुझे कभी भी तुम्हारी कमी महसूस नहीं होने दी. पिताजी को कुछ मत कहना...!!और कमरे में फफक-फफक के रोने की आवाजे गूंजने लगी…!!



- कन्हैया (कनु) 

बूँद...


कुछ चीजें होती है, जिनका अनजाने में ही इंतज़ार किया करते है,
कोई खामोशी से तो कोई ख़ुशी से, अपना इज़हार किया करते है…कुदरत की इस कृति की बड़ी अजीबोगरीब दास्ताँ है,इसे समझ पाना कभी मुश्किल, तो कभी बहुत आसान है….

ये बहरूपिये की तरह है, जो किसी को पहचान में नहीं आती है…
धरती की प्यास बुझाने के लिए, बरस पड़ती है आसमान से,
लहलहाते खेतों के लिए, बन के आती है सोमरस के रूप में…
सूरज की किरणों के साथ खेल होली, ये इन्द्रधनुष बना देती है…

बारिश में पेडों के पत्तों पर, ये मोती बनकर बिखर जाती है,
फूल के अंगों पर सजकर, ये दुल्हन उसे बना देती है…
गम में डूबे हुए को अपना सहारा देकर, अनगिनत देवदास बनाये है…
कभी दुःख में शामिल होकर, आँख से आंसू बनकर निकल पड़ती है ,

तब आसान नहीं होता रोक पाना इसे, जब आँखे ज्वालामुखी बन जाती है…
लगता है जैसे अपनी मेहनत से जीत कर ज़ंग, हम बन गए हो बादशाह जगत के…
इतना कुछ होने पर भी हमेशा खोई रहती है किसी गुमनामी के अँधेरे में,
जैसे ये मिटा देती है अपना वजूद, डूब कर समुन्दर की गहराइयों में…


जैसे “पानी की बूँद”, कहने को तो सिर्फ एक मामूली बूँद होती है,
समूचे गगन में हो संग हवाओं के, ये ठुमकती रहती है,
शराब की बोतल में लुढ़ककर, ना जाने कितने मयखाने सजाये है,
ये उभरती है हीरे की तरह चमकती हुई, जब माथे पर पसीना बन के ,
- कन्हैया लाल

रविवार, 16 सितंबर 2012

बस की खिड़की और बारिश की बूंदे


                                      बस की खिड़की और बारिश की बूंदे



बस की खिडकी पर ....

बारिश की बूंदें......
गिरते ही बना लेती है लडियाँ....
फिसलती शीशे पर......
गढ़तीं मनगढंत आकार .......
बिना किसी ज्यामितीय माथा पिच्ची के ....
बहुत कुछ उस बच्चे की तरह .........
जो पहली बार स्लेट पकड़ता है .....
और पेंसिल से बना लेता है , आकृतियाँ.....
..................................................
फिसलती बूंदों के लड़ियो के उस पार .....
झमाझम बारिश और रास्ते के सारे रंग....
घुला घुला सा नजर आता है .........
बिना किसी पूर्वाग्रह से बनाई गई ......
उस पेंटिंग की तरह ......
जिसमें चित्र की कल्पना में डूबा चित्रकार .....
रंग और पानी के अनुपात को परखे बिना .......
बस ब्रश चलाता नजर आता है ..............
.....................................................
बस की खिडकी पर बारिश की बूंदें.....
फिसलती शीशे पर......
मनचले रास्ते चुनती .......
फिर भी उनका गंतव्य होता .......
एक सिरे से दूसरे सिरे तक ......
बहुत कुछ उस जीवन की तरह .....
जिसका गंतव्य निश्चित होता है .....
रास्तों का पता नहीं होता .....
..........................................
थोडी ही देर में , ............
बारिश थम जाती है ........
निकल आती है सुनहरी धुप ....
और बारिश की लड़ियों के बनाये रास्तों .....
के सिर्फ चिहन्न नजर आते है .......
और एक - दो दिन में ........
ये भी अदृश्य हो जाते हैं......
बता जाते, जीवन का कोई भी छाप ......
समय के धुप के आगे स्थायी नहीं होता .........       - नेपथ्य निशांत 

शनिवार, 15 सितंबर 2012

हल्की हल्की दोस्ती............


ये हल्की हल्की दोस्ती,हल्की हल्की रहने दे... 
रिमझिम,उडती बारिश में,सौंधी खुशबू बहने दे... 
अनजानापन और गहरा रिश्ता,ये दो ऊंचे पर्वत हैं... 
इनके बीच की इस डोरी पर,अहिस्ता से चलने दे... 

अपने नए लगते चेहरों में,पुरानापन ढलने दे...
गैर लगती सी आँखों में,कुछ अपनापन पढने दे...
दुनिया की दोपहर बीती,अब दोस्ती की शाम सजने दे...
हल्की हल्की दोस्ती,हल्की हल्की रहने दे॥

दूर परिंदे उड़ते हैं,जैसे आकाश की राहों में...
या एक मोती ढलता है,अपनी सीपी माँ की बाहों में...
वैसी प्यारी इन खुशियों में,तेरी दोस्ती बसने दे...
हल्की हल्की दोस्ती,हल्की हल्की रहने दे॥

गहरे रिश्तों की नगरी में,उम्मीद के बंधन होते हैं,
वो बंधन जब पूरे ना हों,नैना बरबस रोते हैं...
साथ रहें,आज़ाद रहें,वो धीमी सरगम बजने दे...
हल्की हल्की दोस्ती,हल्की हल्की रहने दे॥

तेज़ सूर्य के दिवा पुंज से,कितने जीवन बढ़ते हैं॥
चन्द्र किरण के स्नेह कुञ्ज में,नींद की चादर बुनते हैं॥
वैसे ही मन के दिन रात में,संवाद का जीवन बहने दे....
चाहे कुछ कह ले,या चुप रहकर बातें करने दे॥

रिमझिम,उडती बारिश में,सौंधी खुशबू बहने दे...
हल्की हल्की दोस्ती,हल्की हल्की रहने दे...

                                -श्रेया अग्रवाल

कोई यूँ

कोई यूँ सुला दे कि जागने से वास्ता ना रहे कोई..
कोई यूँ रुला दे कि हंसने से वास्ता ना रहे कोई..

डर के रंगों से क्यूँ सहमा है हर चेहरे का पन्ना..
डर के रंग भरने वालों को इंसान बना दे कोई...

तार ही तार बिछ गए हैं,दुनिया में हर कदम पर..
बेतार करके हम सबको,मुस्कान से हर दिल जोड़ दे कोई..

दौड़ रहे हैं हम, तुम, चंदा सूरज, तारे...
एक बार ठहर के गले लगा ले कोई...

वो ऊपरवाला कहता है,मुझे देख ले खिलते फूलों में तू...
पर हर पल, माला में नाम रटने वाले को ये समझा दे कोई..

बात बात पर क्यूँ मरना चाहता है,ऐ जवान दिल तू?
एक बार तो तेरे लिए,जिंदगी का घूंघट उठा दे कोई...


                                       -श्रेया  अग्रवाल 

सापेक्ष प्रेम



नोट - मेरी एक अंग्रेज़ी कविता (जो कि कविता निजार कब्बानी की कविता 'लव कम्पेयर्ड' से प्रेरित है )
का हिन्दी अनुवाद ख्याति प्राप्त लेखक  डा॰ दुष्यन्त ने किया है । प्रस्तुत है, आप लोगों के सम्मुख !

''सापेक्ष प्रेम ''


मैं जरा भी नहीं हूं
तुम्हारे और किसी प्रेमी की तरह !

कोई और देगा तुम्हें बेशक कोई घडी
और मैं दूंगा वक्त !

वो देगा तुम्हें आंख
और मैं ख्वाब!

वो देगा तुम्हें रोशनी के घर
और मैं दूंगा हजार आफताब जगमगाते हुए !

वो देगा तुम्हें सारा का सारा समंदर
और मैं लहरें तुम्हें नौकावहन कर पार जाने के लिए!

और अगर वह देगा तुम्हें एक दिल
मैं दूंगा तुम्हें प्रेम, मेरी प्रिय !
 
- डा॰ दुष्यन्त (अनुवाद)


शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

ख़ामोशी

खामोशियाँ है आज खामोशियाँ ही रहने दो,
दुःख की नदी को चुप चाप बहने दो,
मै आज डूब भी जाऊं तो किसको फ़िक्र है,
यह शमा मत बुझाओ मदहोशियाँ ही रहने दो..||

जो ख्वाब देखा कल उससे खवाब रहने दो..
हम पागल ही सही दुनिया को होशियार रहने दो...||
                               -अंकित  यादव