मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

मेहंदी



हथेली पर मेहंदी का कोण चलाते देख 
मुझे याद आती है 
कोने वाली मिठाई की दूकान पर 
उबलते घी में छनछनाती जलेबियाँ..

उसी तरह जलेबियाँ बिखेरती तुम 
गोरे-गोरे, नरम हाथों पर.. 
बीच बीच में चख लेती मेहंदी को 
जैसे हलवाई चखता है जायका जलेबी का..

मैंने भी चख के देखा
कडवी लगी, 
चाशनी में डूबी हुई जलेबी खानी पड़ी..!!

मेहंदी के खर जाने पर 
हाथों की लकीरों को जैसे 
मिल गया हो साथ फूल पत्तियों का..
और हक जताती चढ़ जाती कोहनी तक..

अंगुली की टपोरियां रंगी हुई,
कहीं कलश तो किसी कोने में
अपने साजन का नाम लिखे..
सौंदर्य को परिपूर्ण करती मेहंदी..

अब समझ में आया.. 
क्यूँ मीठी लगती है मेहंदी..
उसके हाथों को देख 
मुँह में चाशनी सा स्वाद लगने लगा...!!

- कन्हैया (कनु)

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